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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 239 नहीं होता है। वह अवश्य ही प्रत्यभिज्ञारूप होता है। इतना अवश्य है कि अयथार्थ प्रत्यभिज्ञा में सामान्य लक्षण नहीं होने पर भले ही दोष उत्पन्न होते हों, किन्तु यथार्थ प्रत्यभिज्ञा तो सामान्य और विशेष-इन दोनों लक्षणों से युक्त होने पर उसमें किसी प्रकार का कोई भी दोष उत्पन्न नहीं होता है, 'यह वही गाय है इत्यादि में कोई भी दोष उत्पन्न नहीं होता है, अतः, प्रत्यभिज्ञा अवश्य ही प्रमाणरूप सिद्ध होती है। 09 बौद्ध - इसी सन्दर्भ में, बौद्ध-दार्शनिक अपने क्षणिकवाद की पुष्टि करने के लिए कहते हैं कि जगत के सभी पदार्थों के क्षणभंगुर होने से प्रत्यभिज्ञा प्रमाणरूप नहीं होती है, एकता का जो ग्रहण है, वह भ्रान्तिरूप है, अर्थात् हमारे कहने का आशय यह है कि संकलनात्मक-ज्ञान एकत्वरूप होने से भ्रान्तिरूप ही है। प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण विनाशशील होते हैं। जब कोई भी पदार्थ दो क्षण के लिए भी स्थायी नहीं है, तो "यह वही जिनदत्त है', 'यह वही गाय है इत्यादि उदाहरण में वर्तमानकाल को भूतकाल से जोड़ना (तुलना करना), अर्थात् पूर्वापर की संकलनारूप प्रत्यभिज्ञानात्मक एकत्वरूप ज्ञान भ्रान्ति (मिथ्या) रूप ही है।10 जैन - इस पर, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि प्रत्येक पदार्थ द्रव्य और पर्याय से युक्त होता हैं, अतः, उसको क्षणभंगुर नहीं माना जा सकता है। प्रत्येक पदार्थ द्रव्य से नित्य और पर्याय से अनित्य होते हैं। आपके बौद्धदर्शन के क्षणिकवाद का खण्डन हमने अन्य स्थान पर कर दिया है, अतः, यहाँ उसका पिष्टपेषण उचित नहीं है, इसलिए क्षणभंगता का भंग, अर्थात् क्षणभंगता नहीं है, यह हमारा अभंग उत्तर है।" पुनः, जैन-दार्शनिक कहते हैं कि यह ठीक है कि आप संसार के प्रत्येक पदार्थ को भले ही क्षणिक भी मान लें, किन्तु फिर भी सभी पदार्थों में संकलनारूप जो ज्ञान है, अर्थात् एकत्वरूप जो ज्ञान होता है, उसको मिथ्या (भ्रान्ति) रूप कहने से आपका क्या आशय है ? अर्थात् संकलनात्मक-ज्ञान को आप भ्रान्तिरूप क्यों कहते हैं ?112 309 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 387 310 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि. पृ. 388 311 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 388 312 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 388 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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