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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा जैन - बौद्धों के इस तर्क की समीक्षा करते हुए जैनाचार्य रत्नप्रभसरि कहते हैं कि हम प्रत्यभिज्ञा की प्रमाणता का लक्षण मात्र 'संकलना' को ही नहीं मानते हैं, किन्तु 'स्व और पर' का निश्चय कराने वाला जो ज्ञान हैं, वही प्रमाण है। प्रमाण का ऐसा सामान्य लक्षण जहाँ भी विद्यमान होता है, उसे ही प्रमाण मानते हैं। जो संकलनात्मक-ज्ञान है, वह प्रत्यभिज्ञान तभी कहलाता है, जब उसमें यह लक्षण घटित हैं, अर्थात संकलनात्मक जो ज्ञान है, वह सामान्य लक्षण से युक्त होने पर ही प्रमाणरूप होता है। सामान्य लक्षण से युक्त होते हुए भी जो विशेष लक्षण होता है, वही लक्षण निर्दोष होता है। उदाहरणस्वरूप, ‘सास्ना' यह गाय का विशेष-लक्षण है, परन्तु चेतना यह प्राणीमात्र का सामान्य लक्षण है। सामान्य गो जाति में सास्ना पाई जाती है और सास्ना के विशेष लक्षण से ही गाय की पहचान होती है। चेतना प्राणीमात्र का सामान्य लक्षण है, अर्थात संसार के प्रत्येक प्राणी में चेतना पायी जाती है, किन्तु यदि मिट्टी की गाय में सास्ना विशेष के होने पर भी यदि चेतनत्व (सामान्य लक्षण) न हैं, तो उस मिट्टी की गाय को “चेतनायुक्त गाय" नहीं कह सकते हैं। ठीक इसी प्रकार सामान्य लक्षण के होते हुए जो विशेष लक्षण होता है, वही लक्षण 'लक्षण' कहलाता है।
___ जैन - पुनः, जैन-दार्शनिक कहते हैं कि नख, केश, चोटी आदि के संबंध में हम जो कथन करते हैं, वह मात्र व्यवहार के आधार पर करते हैं, सामान्य लक्षण से नहीं करते हैं। वस्तुतः तो हम भी यह जानते हैं कि नख, केश, चोटी आदि कटने के बाद नवीन ही उत्पन्न होते हैं, किन्तु व्यवहार के आधार पर पुनः उन्हीं नियत स्थान पर उत्पन्न होने के कारण यह अवश्य कह देते हैं कि यह वही नख है, यह वही केश है, यह वही चोटी है, अर्थात् नख, केश, चोटी कटकर भी चाहे दूसरे भी आ जाएँ, तब भी व्यवहार के आधार पर यह वही नख, केश, चोटी आदि हैं- ऐसा कहा जाता है। किसी व्यक्ति को हमने दस साल बाद देखा है, तो दस साल में बदलकर भी वह वही रहता है, किन्तु “स्व-पर-व्यवसायीरूप ज्ञान सामान्य लक्षण और उससे युक्त विशेष लक्षण (संकलना) जहाँ देखा जाता है, वही ज्ञान प्रमाणरूप होता है। नख, केश, चोटी आदि में निश्चयात्मकज्ञान न होने के कारण उन्हें प्रत्यभिज्ञा-प्रमाणरूप नहीं माना जाता है, किन्तु इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि संकलनात्मक-ज्ञान प्रत्यभिज्ञारूप
308 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 387
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