SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 237 प्रत्यभिज्ञान नामक कल्पना को प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष एवं प्रत्यभिज्ञान का विषय भिन्न है। प्रत्यक्ष में स्पष्ट अवभास (बोध) होता है, किन्तु प्रत्यभिज्ञान में उसका भ्रम (संभावना) होता है। काटे हुए केशों एवं नवीन उत्पन्न केशों में, जादूगर द्वारा प्रदर्शित गोलों में तथा प्रतिक्षण नई तेल-बूंदों से जल रहे दीपक आदि में, यह वही दीपक हैऐसा जो प्रत्यभिज्ञान होता है, वह स्पष्टावभासी प्रत्यक्ष से भिन्न है, इसलिए प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता। ऐसे प्रत्यभिज्ञा से वर्णादि में एकत्व का निश्चय नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष एवं प्रत्यभिज्ञा- दोनों भिन्न हैं। प्रत्यभिज्ञान में पूर्वानुभूत अर्थ के धर्म का स्मरण के आधार पर वर्तमान अर्थ पर जो आरोप किया जाता है, ऐसा आरोप प्रत्यक्ष में नहीं होता।5 रत्नाकरावतारिका में इसी संदर्भ में बौद्ध जैनों से कहते हैं कि नख, केश और चोटी आदि आपके अनुसार प्रत्यभिज्ञा के लक्षण से युक्त हैं, जैसे- यह वही नख है, यह वही केश है, यह वही चोटी है आदि में संकलनात्मक लक्षण घटित होता है, तो आपके इस संकलनात्मक-लक्षण में हमें व्यभिचार-दोष प्रतीत होता है। आप यह किस प्रकार से सिद्ध करेंगे कि ये वही नख, केश, चोटी आदि हैं। क्योंकि ये सब तो कटने के पश्चात् कचरे में डल चुके हैं और शायद अभी कचरे में हो भी सकते हैं, तो फिर ऐसा कैसे कहा जा सकता है कि ये वही नख, केश, चोटी आदि हैं। अतः, 'संकलना रूप लक्षण व्यभिचार-दोष से ग्रस्त लक्षण होने के कारण प्रत्यभिज्ञा का आपका लक्षण ही दूषित सिद्ध होता है। पुनः, बौद्ध-दार्शनिक जैनों से कहते हैं कि आपने प्रत्यक्ष प्रमाण के संबंध में हमारे पर जो दोष लगाया है, वह ठीक नहीं है, क्योंकि हम ऐसा मानते हैं कि जहाँ व्यभिचार-दोष होता है, वहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण भी निर्दोष नहीं हो सकता है। हम बौद्ध यही कहते हैं कि दो चन्द्र-दर्शन में तो निर्दोषता नहीं रहती है, क्योंकि आकाश-मंडल में चन्द्रमा तो एक है, किन्तु यदि दो दिखाई देते हैं, तो यह समझना चाहिए कि यह प्रत्यक्ष दूषित है। यदि इसके विपरीत मान लें कि यह खम्भा है, खम्भा एक ही है और हमें भी एक ही दिखाई दे रहा है, तो समझना चाहिए कि यह प्रत्यक्ष निर्दोष है, बाधा आदि दोषों से रहित है। 305 देखें - बौद्ध-प्रमाण-मीमांसा की जैन-दृष्टि से समीक्षा, डॉ. धर्मचन्द जैन, पृ. 310 500 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 386, 387 57 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 386, 387 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy