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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
डुबकी लगाई। प्रथम बार की डुबकी में जो पानी था, दूसरी बार की डुबकी में दूसरा पानी आ गया, तो क्या यह कहेंगे कि यह वही पानी है ? पानी का तो सतत-प्रवाह चलता रहता है, अतः, हम आप जैनों के प्रत्यभिज्ञा-ज्ञान को प्रमाणरूप नहीं कह सकते।
जैन- इसके उत्तर में जैनाचार्य रत्नप्रभसरि कहते हैं कि क्या एक प्रत्यभिज्ञा के भ्रान्त होने पर सारी प्रत्यभिज्ञाएँ भ्रान्त मानी जाएगी ? यदि आप ऐसा ही कथन करते हैं कि किसी एक पदार्थ की प्रत्यभिज्ञा के भ्रान्त होने पर सभी पदार्थों या व्यक्तियों की सभी प्रत्यभिज्ञाएं भ्रान्त या मिथ्यारूप ही होती हैं, तिमिरादि रोग से ग्रस्त व्यक्ति को आकाश-मंडल में स्थित एक चन्द्र के स्थान पर दो चन्द्र दिखाई देते हैं, यह प्रत्यक्ष ज्ञान भ्रान्त होने पर क्या सभी प्रत्यक्ष ज्ञान भ्रान्तिरूप ही होगा? वस्तुतः तो, आकाश में एक ही चन्द्रमा होता है, किन्तु रोगादि के कारण दो चन्द्र दिखाई देते हैं, तो क्या इस प्रत्यक्ष ज्ञान के मिथ्या होने के कारण सभी स्थानों के सभी प्रत्यक्षों को मिथ्या ज्ञान मान लिया जाएगा? यद्यपि यह विदित है कि एक चन्द्र के स्थान पर दो चन्द्र दिखाई देना तिमिरादि रोग के कारण होता है, तो इसका मतलब यह तो नहीं हो जाएगा कि सभी प्रत्यक्ष ज्ञान मिथ्यारूप या भ्रान्तिरूप ही होते हैं। आप बौद्धों की मान्यतानुसार तो यह होना चाहिए कि एक प्रत्यक्ष के भ्रान्त होने पर सभी प्रत्यक्ष ज्ञानों को भ्रान्तिरूप मान लेना चाहिए। कदाचित् आप बौद्ध ऐसा ही मानते हैं, तो मृग-मरीचिका के भ्रान्त जल-ज्ञान के समान ही सरोवर-समुद्र आदि का जल-ज्ञान भी भ्रान्ति वाला हो जाना चाहिए, अतः, आप बौद्धों द्वारा हम जैनों पर जो दोष लगाया जाता है कि किसी एक प्रत्यभिज्ञा के भ्रान्त होने पर सभी प्रत्यभिज्ञाएँ भ्रान्त ही होती हैं, सर्वथा अनुचित है।
बौद्ध - इस पर, बौद्ध-दार्शनिक जैनों से कहते हैं कि जो पदार्थ अपने यथार्थ लक्षण से युक्त होता है, उसमें किसी भी प्रकार का व्यभिचार-दोष उत्पन्न नहीं हो सकता है। आपके प्रत्यभिज्ञा का लक्षण क्या है, "पूर्वापर की संकलना वर्तमान की वस्तु को भूतकाल की वस्तु के साथ जोड़ना, अर्थात् 'यह वही है', 'यह तद्प है, 'यह गाय उस गाय के समान है, यही तो आपकी प्रत्यभिज्ञा का लक्षण है। डॉ. धर्मचन्द जैन 'बौद्ध-प्रमाण-मीमांसा की जैन-दृष्टि से समीक्षा' पुस्तक में लिखते हैं कि धर्मकीर्ति का मत है कि 'यह वही है इस प्रकार, की एकत्व-विषयक
304 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 386
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