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________________ 242 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा जैन - जैन-दार्शनिक बौद्धों पर आक्षेप लगाते हुए कहते हैं कि आप हमारे तर्कजाल से छूटकर कहाँ जाओगे ? यह ठीक है कि आप सादृश्य को मत मानो तथा सदृशता को बताने वाली प्रत्यभिज्ञा को भी प्रमाणरूप मत मानो, किन्तु फिर भी पूर्वापरक्षण में सदृशता नहीं है, अपितु विलक्षणता (विलक्षण) है, ऐसा आप मानते हैं, तो इस विलक्षणता को बताने वाली ऐसी प्रत्यभिज्ञा, अर्थात् 'यह उत्तरक्षण पूर्वक्षण से विलक्षण-रूप है' में विलक्षणता का बोध प्रत्यभिज्ञा-प्रमाण से ही प्राप्त होगा, अर्थात प्रत्यभिज्ञा ही तो सिद्ध होगी। फलितार्थ यह है कि यदि आप पूर्वापर पदार्थों को भले ही क्षणिक मानें, तो भी दोनों के मध्य सदृशता मानेंगे, तो सदृशता को बताने वाली प्रत्यभिज्ञा प्रमाणरूप सिद्ध होगी और यदि पूर्वापर-क्षणों को विलक्षण मानेंगे, तो "यह महिष, गाय से विलक्षण है- इस विलक्षणता को बताने वाली प्रत्यभिज्ञा भी प्रमाणरूप ही सिद्ध होगी।19 बौद्ध - इस पर बौद्ध सादृश्य और वैसादृश्य को छोड़कर तीसरा तर्क देते हए कहते हैं कि पूर्वापर-क्षणों में, अर्थात प्रत्येक समय में नए-नए पदार्थों के उत्पन्न होने में सादृश्य अथवा वैसादृश्य- दोनों ही नहीं हैं, जिससे आपकी प्रत्यभिज्ञा सिद्ध हो, अपितु हमारी तो यह अवधारणा है कि समस्त पदार्थ परमाणुओं का प्रचय-मात्र ही हैं, अर्थात् परमाणुओं का पुंज (समूह) मात्र ही हैं- ऐसा हम मानेंगे। 20 जैन - इस पर, जैन-दार्शनिक तुरंत बौद्धों को अगला तर्क देते हैं कि यदि आप पदार्थों को परमाणुओं का समूहमात्र मानते हैं, तो फिर यह छोटा घट, यह बड़ा घट, इन छोटे-बड़े घटों के संबंध में आपका क्या कथन होगा ? क्या छोटे घट से बड़े घट में परमाणु-प्रचय अधिक है और इस छोटे घट में बड़े घट की अपेक्षा परमाणु-प्रचय भी अल्प है, इत्यादि रूप प्रत्यभिज्ञा तो पूर्वापर की संकलनारूप और यथार्थ होने से प्रमाणरूप ही सिद्ध होगी।21 बौद्ध - अब बौद्ध-दार्शनिकों के सादृश्य-वैसादृश्य और परमाणु-प्रचयत्व आदि तर्क जैनों द्वारा खंडित हो जाने पर वे एक नया तर्क प्रस्तुत करते हुए जैनों से कहते हैं कि यह ठीक है कि जिस प्रकार सादृश्य भी नहीं, वैसादृश्य भी नहीं तथा परमाणुओं का प्रचयत्व भी नहीं है, 319 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 389 320 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 389 321 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 389 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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