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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
परिणति है, जबकि जैनों ने जो उनके
तत्त्व - मीमांसा की ही निर्विकल्प - प्रत्यक्ष की समालोचना की है, वह जैनों की तत्त्व-मीमांसीय- अवधारणा पर आधारित है, अतः, दोनों को अपने-अपने परिप्रेक्ष्य में ही समझने का प्रयत्न किया जाना चाहिए ।
इस संदर्भ में डॉ. धर्मचंद जैन का यह मंतव्य विशेष रूप से दृष्टव्य है । वे लिखते हैं- 'शुद्ध प्रत्यक्ष की दृष्टि से यदि विचार किया जाए, तो बौद्धसम्मत निर्विकल्पक - प्रत्यक्ष समीचीन प्रतीत होता है, किन्तु प्रमाण द्वारा अर्थ-क्रिया में प्रवृत्ति या हेयोपादेय के ज्ञान की दृष्टि से यदि विचार किया जाए, तो वह सर्वथा अनुपयोगी एवं अव्यवहार्य है तथा जैनसम्मत सविकल्पक- प्रत्यक्ष उपयोगी एवं व्यवहार्य प्रतीत होता है । बौद्ध-दर्शन- सम्मत प्रत्यक्ष इसलिए अव्यवहार्य एवं काल्पनिक सिद्ध होता है, क्योंकि उसका विषय स्थूल एवं स्थिर दृष्टिगोचर होने वाले पदार्थ नहीं, अपितु निरन्तर गतिशील एवं सूक्ष्म व असाधारण स्वलक्षण- परमाणु हैं, जिनका किसी भी पुरुष को प्रत्यक्ष होता हुआ दिखाई नहीं देता है। 302 इस प्रकार, हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि निर्विकल्पक - प्रत्यक्ष, जिसे जैनों ने दर्शन कहा है, वह निश्चय ही प्रमाणज्ञान का पूर्व-तत्त्व है और उसके बिना सविकल्प और व्यवसायात्मक - प्रत्यक्ष सम्भव भी नहीं होता है, फिर भी यदि निश्चयात्मक - ज्ञान ही प्रमाण है- ऐसा माना जाए, तो फिर हमें निर्विकल्पक - प्रत्यक्ष को अव्यवहार्य या अप्रमाणरूप मानना ही होगा, क्योंकि प्रमाण निश्चयात्मक होता है और यह निश्चयात्मकता सविकल्प या विशेष ज्ञान के द्वारा ही सम्भव है ।
302 देखें - बौद्ध-प्रमाण-मीमांसा की जैन- दृष्टि से समीक्षा, डॉ. धर्मचन्द जैन, पृ. 207
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