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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
अध्याय-8 प्रत्यभिज्ञा, तर्क एवं स्मृति की अप्रमाणता के संबंध
__ में बौद्ध मत की समीक्षा
(अ) प्रत्यभिज्ञा की अप्रमाणता का बौद्धों का पूर्वपक्ष
जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया है कि बौद्ध-दार्शनिक जैनों के समान स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को स्वतंत्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। यह भी हम स्पष्ट कर चुके हैं कि जैन-दर्शन में इन तीनों को प्रमाण मानने की परंपरा दिगंबर-आचार्य अकलंक और श्वेताम्बर आचार्य सिद्धऋषि से ही प्रारंभ होती है और यही कारण रहा है कि प्राचीन-स्तर के बौद्ध-ग्रन्थों में इनके प्रमाण की समीक्षा भी उपलब्ध नहीं होती। सर्वप्रथम अर्चट ने ही हेतुबिंदु-टीका में स्मृति, प्रत्यभिज्ञा आदि के प्रामाण्य का निरसन किया है। यह भी हम इंगित कर चुके हैं कि रत्नप्रभसूरि के रत्नाकरावतारिका में प्रत्यभिज्ञा आदि के खंडन हेतु पूर्वपक्ष के रूप में अर्चट् के हेतुबिंदु की टीका को ही आधार बनाया गया है। अर्चट की हेतबिंद की टीका के अतिरिक्त बौद्ध-न्याय के आठवीं शताब्दी के पूर्व के किसी भी ग्रंथ में प्रत्यभिज्ञा आदि के प्रामाण्य का निरसन नहीं है। रत्नप्रभसूरि ने बौद्धों के द्वारा जैनों द्वारा मान्य प्रत्यभिज्ञा की प्रमाणरूपता का जो खंडन किया था, पुन: उसका भी खंडन करके रत्नाकरावतारिका में प्रत्यभिज्ञा की प्रमाणरूपता की सिद्धि की है। चूंकि बौद्ध-दार्शनिक प्रत्यभिज्ञा को स्वतंत्र प्रमाण स्वीकार नहीं करके उसे प्रत्यक्ष का ही एक भाग मानते हैं और इसी रूप में उनके पूर्वपक्ष का प्रस्तुतिकरण, जो अर्चट की हेतुबिंदु की टीका में हुआ है, रत्नप्रभसूरि ने प्रायः उसी को प्रस्तुत किया है, अतः, हम यहाँ अलग से बौद्धों के पूर्वपक्ष का प्रस्तुतिकरण न करके रत्नाकरावतारिका में जिस रूप में उनके पूर्वपक्ष का उल्लेख है, उसी का प्रस्तुतिकरण करेंगे।
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