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________________ 232 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा जैन-दार्शनिक 'दर्शन' को सामान्य की अनुभूतिरूप मानते हैं, किन्तु बौद्धों के अनुसार, सामान्य भी काल्पनिक है, अतः, प्रत्यक्ष मात्र निर्विकल्प-अनुभूति से अन्य कुछ नहीं है। जैन-दार्शनिकों ने बौद्धों के प्रत्यक्ष की अवधारणा की समीक्षा इसलिए की कि यदि प्रत्यक्ष निर्विकल्प है और नाम, जाति आदि की कल्पना से रहित है, तो फिर वह निश्चयात्मक या व्यवसायात्मक नहीं होता और जो व्यवसायात्मक या निश्चयात्मक नहीं होता है, ऐसे बोध को प्रमाण की कोटि में नहीं रखा जा सकता है। बौद्धों की कठिनाई यह भी थी कि यदि उनके अनुसार सम्पूर्ण सत्ता क्षणिक है, तो जब तक उसके स्वरूप का निश्चय ळोगा, तब तक तो वह बदल जाएगी। प्रत्यक्ष को मात्र वर्तमानकालीन ही कहा है, अतः, जो क्षणिक है, उसकी मात्र अनुभूति ही संभव है। उसके स्वरूप का निर्णय तो कालान्तर में होता है और इसलिए वह मात्र अनुमान ही हो सकता है। विकल्प मात्र अनुमान में ही संभव है, क्योंकि बौद्धदर्शन का मानना है कि विकल्प तो आरोपित है, अतः, वे वस्तु या सत्ता का स्पर्श नहीं कर सकते हैं। बौद्धदर्शन में जो प्रत्यक्ष को निर्विकल्प माना गया है, उसका मूल आधार उनके वस्तुसत् को निःस्वभाव ही मानना है। जो निःस्वभाव है, उसमें नाम, जाति आदि की कल्पना संभव ही नहीं है। बौद्धों ने अपनी ज्ञान-मीमांसा को तत्त्व-मीमांसा पर ही आधारित रखा था और इसलिए उनके पास प्रत्यक्ष को निर्विकल्प मानने के अतिरिक्त अन्य कोई चारा नहीं था, जबकि जैन-दर्शन के अनुसार, वस्तुसत् सामान्य-विशेषात्मक होता है, साथ ही परिणामी (परिवर्तनशील) होकर भी नित्य होता है, अतः, उनके लिए प्रत्यक्ष को निश्चयात्मक माना जा सकता था। यही कारण था कि जैनों ने प्रत्यक्ष को निश्चयात्मक मानकर बौद्धों के निर्विकल्प–प्रत्यक्ष की समालोचना की है। वस्तुतः, जैन-दर्शन और बौद्धदर्शन की तत्त्व मीमांसीय-अवधारणाएं भिन्न-भिन्न हैं, अतः, उनकी प्रमाण-मीमांसा में ऐसा अंतर आना स्वाभाविक है, तो भी हम बौद्धों की तत्त्व-मीमांसा को आधार मानकर कोई प्रमाण-मीमांसीय निर्णय लेंगे, तो उनकी दृष्टि से सत्य ही होगा। इसी प्रकार, जैन-दार्शनिकों के प्रमाण-मीमांसीय-निर्णय भी तत्त्व-मीमांसीय-आधार पर खड़े होने से उनकी दृष्टि से वे उचित ही होंगे। जैन-दर्शन और बौद्धदर्शन के तत्त्वमीमांसीय-आधार भिन्न-भिन्न हैं, अतः, उनकी प्रमाण-मीमांसा में जो आधार देखा जाता है, वह स्वाभाविक ही है। वस्तुतः, बौद्धों ने जिस निर्विकल्प-प्रत्यक्ष की अवधारणा को प्रस्तुत किया है, वह उनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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