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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा ज्ञान को ही प्रत्यक्ष की कोटि में माना है। चूंकि, उनके अनुसार कभी-कभी कोई ज्ञान कल्पनारहित होते हुए भी इन्द्रिय-विकार के कारण भ्रान्त हो सकता है, इसलिए वे कल्पनारहित अभ्रान्त ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं । यद्यपि धर्मकीर्त्ति ने कल्पनारहित होने का अर्थ नाम, जाति, गुण, क्रिया, द्रव्य आदि की योजना से रहित तो माना ही था, किन्तु उन्होंने उससे भी आगे बढ़कर यह कहा कि जो ज्ञान वाचक शब्द के संसर्ग से भी रहित होता है, वही ज्ञान कल्पनारहित होता है। इस प्रकार, उन्होंने प्रत्यक्ष को निर्विकल्प के साथ-साथ अनभिलाप्य, अर्थात् शब्द-संसर्ग से रहित भी माना है। परवर्ती बौद्ध - दार्शनिकों ने इन लक्षणों पर आगे अधिक गहराई से विचार किया है, किन्तु यहाँ हम विस्तार भय से उस समग्र चर्चा में जाना उचित नहीं समझते हैं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्रत्यक्ष - लक्षण में अभ्रान्त - पद जोड़ने के संदर्भ में जो श्रेय धर्मकीर्ति को दिया जाता है, वह उसे न जाकर वस्तुतः असंग को जाता है, क्योंकि असंग ने ही सर्वप्रथम अपने प्रमाण - लक्षण में अभ्रान्त-लक्षण को ग्रहण किया था । जहाँ तक जैन- दार्शनिकों का प्रश्न है, उन्होंने मुख्य रूप से बौद्धों के प्रत्यक्ष - लक्षण में निर्विकल्पता को ही अपनी समीक्षा का आधार बनाया है, क्योंकि कुछ जैन- दार्शनिकों ने भी अपने प्रमाण के लक्षण में विवर्जित और अभ्रान्त पद का प्रयोग किया है। प्रस्तुत प्रसंग में रत्नप्रभसूरि ने भी लक्षण में अभ्रान्त और अपूर्व लक्षण पर बल न देकर निर्विकल्पता को अपनी समीक्षा का आधार बनाया है। निष्कर्ष 231 इस प्रकार, हम देखते हैं कि बौद्धों ने प्रत्यक्ष को निर्विकल्प स्वीकार किया है। उसका आधार यह था कि उनके यहाँ जैन-दर्शन के समान 'दर्शन' अर्थात् निर्विकल्प - अनुभूति और ज्ञान अर्थात् सविकल्प - वस्तु बोध - ऐसा द्विविध वर्गीकरण नहीं था, इसलिए उन्होंने प्रत्यक्ष को निर्विकल्प और अनुमान को सविकल्प माना। जिस प्रकार जैन- दार्शनिक 'दर्शन' को मात्र अनुभूतिरूप तथा अनभिलाप्य मानते हैं, उसी प्रकार बौद्धों ने भी उसे निर्विकल्प और अनभिलाप्य माना है । ( वस्तुतः, बौद्धदर्शन का प्रत्यक्ष जैन- दर्शन का 'दर्शन' ही है ।) अन्तर यह है कि जहाँ जैन-दर्शन 'दर्शन' को सामान्य और जाति को अनुभूतिरूप मानता है, वहीं बौद्ध - दार्शनिक उसे जाति आदि की कल्पना से भी रहित मानते हैं। बौद्ध- दार्शनिक प्रत्यक्ष को मात्र निर्विकल्प ही कहते हैं, जबकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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