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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
कल्पनारहित ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है। इसके अनन्तर धर्मकीर्त्ति ने कल्पनारहित ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हुए भी उसमें 'अभ्रान्त' विशेषण को जोड़कर प्रत्यक्ष का लक्षण निर्धारित किया है । 298
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सर्वप्रथम, वसुबन्धु ने अपने ग्रन्थ 'वादविधि' में प्रत्यक्ष - प्रमाण के लक्षण को स्पष्ट करते हुए कहा है- वही ज्ञान प्रत्यक्ष है, जो अर्थ से उत्पन्न हुआ है ( ततोऽर्थाद्विज्ञानं प्रत्यक्षं) और इन्द्रियजन्य है । इसी प्रकार, प्रमाणसमुच्चय की टीका में भी कहा गया है कि जिस अर्थ को जिस ज्ञान से व्यपदिष्ट किया जाता है, यदि वह ज्ञान उसी अर्थ से उत्पन्न होता है, तो प्रत्यक्ष है, अन्यथा नहीं । 300 इस प्रकार, हम देखते हैं कि यद्यपि वसुबन्धु ने प्रत्यक्ष को ज्ञानरूप माना है, किन्तु उन्होंने उसे इन्द्रियाश्रित न मानकर अर्थाश्रित ही माना है । आगे चलकर बौद्ध-परंपरा में दिङ्नाग ने वसुबन्धु के इस प्रमाण - लक्षण की समीक्षा करते हुए कहा है कि यदि आलम्बन से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को प्रमाण माना जाएगा, तो फिर स्मृति, प्रत्यभिज्ञा आदि को भी अपने अर्थ के आश्रित होने से प्रमाणरूप मानना होगा, अतः, वसुबन्धु का यह प्रमाण - लक्षण स्मृत्यादि ज्ञानों में अतिव्याप्त होने से दूषित ही प्रतीत होता है। इस प्रकार, वसुबन्धु के अर्थाश्रित प्रमाण - लक्षण का खंडन कर दिङ्नाग ने उस ज्ञान को प्रमाणरूप माना, जो इन्द्रियाश्रित है, किन्तु कल्पना से रहित होता है । दिङ्नाग ने प्रमाण का लक्षण दो प्रकार से किया है- 1. जो ज्ञान इन्द्रियाश्रित होकर उत्पन्न होता है, वह प्रत्यक्ष है । 2. जो ज्ञान कल्पना से रहित है, वह प्रत्यक्ष है । 301 यहाँ कल्पना का अर्थ है- नाम, जाति, क्रिया, द्रव्य आदि की योजना करना, अतः, दिङ्नाग के अनुसार, जो ज्ञान नाम, जाति, क्रिया आदि की योजना से रहित होता है, वह ज्ञान प्रत्यक्ष - प्रमाण की कोटि में आता है । दिङ्नाग ने प्रमाण- ज्ञान को दो प्रकार का माना है - 1. सविकल्प 2. निर्विकल्प । इसमें वह अनुमान को सविकल्प और प्रत्यक्ष को निर्विकल्प मानते हैं।
बौद्ध - दार्शनिकों में धर्मकीर्त्ति ने दिङ्नाग के प्रत्यक्ष के प्रमाण - लक्षण को अपर्याप्त बताते हुए उसमें अभ्रान्त पद को जोड़कर प्रमाण - लक्षण इस प्रकार, बताया है कि जो ज्ञान कल्पनारहित और अभ्रान्त है, वह प्रत्यक्ष है । इस प्रकार, धर्मकीर्त्ति ने कल्पनारहित किन्तु अभ्रान्त
299 देखें - बौद्ध-प्रमाण-मीमांसा की जैन- दृष्टि से समीक्षा, डॉ. धर्मचन्द्र जैन, पृ. 109 अक्षमक्षं प्रतिवर्तत इति प्रत्यक्षम् ।
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301 प्रत्यक्षं कल्पनापोढ़ नाम जात्याद्य संयुतम् - प्रमाण संयुतम् समुच्चय, 1.3
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