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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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अर्थात् निश्चयात्मकता को स्वीकार करने में कौनसी बाधा है, अतः, प्रत्यक्ष को व्यवसायात्मक मानना ही आपके लिए उचित मार्ग है। बौद्धों के निर्विकल्प-प्रत्यक्ष की अवधारणा और उसकी समीक्षा
भारतीय-दर्शन में प्रायः सभी दर्शन-परंपराएँ प्रत्यक्ष को प्रमाणरूप में ही स्वीकार करती हैं, यद्यपि उसके स्वरूप को लेकर उनमें पर्याप्त मतभेद देखा जाता है। जहाँ न्याय–वैशेषिक-दर्शन ज्ञान के कारण अर्थात इन्द्रिय-सन्निकर्ष को ही प्रमाणरूप में मानता है, वहीं सांख्यदर्शन इन्द्रियवृत्ति को प्रमाणरूप मानता है, किन्तु जैन और बौद्धदर्शन प्रमाण को ज्ञानरूप ही स्वीकार करते हैं और यह मानते हैं कि ऐसा ज्ञान इन्द्रियजन्य भी हो सकता है और अतीन्द्रिय भी। यहाँ यह भी स्पष्टीकरण आवश्यक है कि नैयायिकों और सांख्यों ने भी योगज-प्रत्यक्षरूप में अतीन्द्रिय-ज्ञान को ही स्वीकार किया है। यद्यपि जैन और बौद्ध-दोनों ही दर्शन नैयायिकों के इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष को प्रमाणरूप नहीं मानते हैं, फिर भी प्रत्यक्ष-प्रमाण की निर्विकल्पता और सविकल्पता के संबंध में दोनों में मतभेद हैं। बौद्धदर्शन प्रत्यक्ष को अनुभूतिरूप मानकर निर्विकल्प ही मानता है, जबकि जैन-दर्शन उसे निश्चयात्मक होने से सविकल्प मानता है। जैन-दार्शनिकों का कहना है कि निर्विकल्प अनुभूति, जिसे वे दर्शन कहते हैं, के संदर्भ में उसे प्रमाण या अप्रमाण होने का प्रश्न नहीं उठता है। केवल निश्चयात्मक सविकल्प-ज्ञान ही प्रमाण की कोटि में आ सकता है, यही कारण रहा है कि परवर्ती जैन-दार्शनिकों ने बौद्धों के निर्विकल्प-प्रत्यक्ष की गहन समीक्षा की है और यह कहा है कि निर्विकल्प-प्रत्यक्ष प्रमाण की कोटि में नहीं आता है। यहाँ हम सर्वप्रथम इस संदर्भ में बौद्धों के पूर्वपक्ष को प्रस्तुत करेंगे और उसके पश्चात् यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि जैन-दार्शनिक, विशेष रूप से रत्नप्रभसूरि, पूर्वपक्ष के रूप में उसकी स्थापना कर किस प्रकार से उसका खंडन करते हैं। निर्विकल्प-प्रत्यक्ष के संदर्भ में बौद्धों का पूर्वपक्ष -
डॉ. धर्मचन्द्र जैन के अनुसार, बौद्ध-न्याय के क्रमिक-विकास में प्रत्यक्ष-प्रमाण का लक्षण तीन प्रकार से प्रतिपादित किया गया है। सर्वप्रथम वसुबन्धु ने, अर्थ से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे ही प्रत्यक्ष कहा है, जबकि दिङ्नाग ने वसुबन्धु के इस प्रत्यक्ष-लक्षण का खंडन कर
298 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 63
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