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________________ 228 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा आपके निर्विकल्प-प्रत्यक्ष के प्रमाण होने की पुष्टि नहीं होती। पुनश्च, यदि आप यह कहते हैं कि 'यह नीला रंग है, तो आपके अनुसार तो यह स्वभाव से ही निरंश है तथा असमारोपयुक्त अर्थात् मिथ्याज्ञान से रहित है। यदि आप इस निरंश नीले रंग में अन्य रंगों की आंशिक-व्यावृत्ति करते हैं, तो उससे नीले रंग का निश्चय कैसे करेंगे ? क्योंकि आंशिक-व्यावृत्ति भी समारोप (मिथ्याज्ञान) से युक्त होती है। इस प्रकार, आप बौद्ध-दार्शनिक एक ही स्वभाव वाले नीले रंग में निरंश (समग्रतः) और अंशत:- दोनों प्रकार से व्यावृत्ति करके निर्विकल्प-प्रत्यक्ष को समारोप और असमारोपदोनों से युक्त सिद्ध करके निर्विकल्प-प्रत्यक्ष को प्रमाणरूप सिद्ध नहीं कर सकते हैं। पुनः, वस्तु-स्वरूप के स्वभाव में अतत्स्वभाव की व्यावृत्ति को यदि आप मात्र कल्पना मानें और उस कल्पित वस्तु की भी कोई कल्पना होगी, तो इसमें तो अनवस्था-दोष आ जाएगा।296 इस प्रकार, से, आचार्य रत्नप्रभसूरि रत्नाकरावतारिका में कहते हैं'व्यवसायजनक अर्थात् व्यवसाय को उत्पन्न करने वाला निर्विकल्प-प्रत्यक्ष प्रमाणरूप हैं बौद्ध-दार्शनिकों का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि व्यवसायात्मक-प्रत्यक्ष में ही प्रामाण्य घटित होता है। इस प्रकार, अन्त में, आचार्य रत्नप्रभसूरि रत्नाकरावतारिका में बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर से कहते हैं कि आप निर्विकल्प-प्रत्यक्ष को व्यवसाय उत्पन्न करने वाला मानते हैं, तो यह उचित नहीं है। जो स्वयं ही व्यवसायरूप नहीं है, तो वह व्यवसाय को उत्पन्न करने वाला कैसे होगा? अर्थात् जो स्वयं का निश्चय नहीं कर सकता, वह पदार्थ का निश्चय कैसे करेगा ? यदि आपका निर्विकल्प-प्रत्यक्ष स्वभाव से व्यवसायात्मक नहीं है, तो वह व्यवसायजनक कैसे होगा। दूसरे, यदि आप निर्विकल्प-प्रत्यक्ष को स्वभाव से व्यवसायात्मक मानते हैं, तो फिर तो आपने हमारे सिद्धांत को ही स्वीकार कर लिया है, इसलिए आपके लिए यही उचित है कि आप प्रत्यक्ष को व्यवसायात्मक स्वीकार कर लें, जिससे आपका निर्विकल्प-प्रत्यक्ष भी प्रमाणरूप सिद्ध हो सके। दूसरे, जब आप निर्विकल्प-प्रत्यक्ष को समारोप-परिपन्थी तो मान ही रहे हैं, अर्थात् निर्विकल्प-प्रत्यक्ष को संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित मानते हैं, तो फिर व्यवसायात्मकता 396 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 63 297 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 63 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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