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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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नहीं, 'यह पीला नहीं, श्वेत नहीं- इस प्रकार, अन्य रंगों का निषेध करते हुए अन्त में जब हम कहते हैं कि यह नीला रंग है, तो यह नीला रंग समारोप से रहित होता है, अर्थात् मिथ्या आरोप से रहित हो जाता है। निर्विकल्प-प्रत्यक्ष में अन्य का निषेध करके कथन करने में समारोप से युक्त पदार्थ भी समारोप से रहित बन जाता है तथा समारोप से रहित पदार्थ समारोप (विकल्प) से युक्त बन जाता है। अन्य-व्यावृत्ति के कारण निर्विकल्प-प्रत्यक्ष में भी समारोप (मिथ्याज्ञान) और असमारोप (यथार्थ-बोध)- दोनों हो सकते हैं, अतः, जब पदार्थ असमारोप अर्थात मिथ्याज्ञान से रहित बन जाता है, तो उसका निर्विकल्प-प्रत्यक्ष भी प्रमाण बन जाता है। इस प्रकार, से, अन्य-अन्य का निषेध करके जब वस्तु के स्वरूप का निर्णय हो जाता है, तो उसमें किसी प्रकार का मिथ्या आरोप नहीं रहता है। इस प्रकार, निर्विकल्प-प्रत्यक्ष प्रमाण की कोटि में आ जाता
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जैन - जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि धर्मोत्तर निर्विकल्प-प्रत्यक्ष को समारोप और असमारोप- दोनों से युक्त मानकर प्रमाणरूप सिद्ध करने के इस प्रयत्न का खण्डन करते हुए कहते हैं कि अन्य की व्यावृत्ति (निषेध) करके वस्तु के स्वरूप का निर्णय हो जाने से निर्विकल्प-प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाता है, आप बौद्धों का यह कथन युक्ति-युक्त नहीं है। आप सबसे पहले यह सिद्ध करें कि निरंश की व्यावृत्ति करते हैं, या अंश (आंशिक) की व्यावृत्ति करते हैं ? यदि आप निरंश की अर्थात् समग्रतः वस्तु की व्यावृत्ति करते हैं, तो इससे वस्तु के स्वरूप का निश्चय कैसे होगा ? क्योंकि जब आप यह कहते हैं कि ये चन्द्र, सूर्य, तारे, नक्षत्र आदि नहीं हैं, तो यह निश्चय कैसे होगा कि वे क्या हैं ? यदि मात्र अन्य का निषेध ही करते रहेंगे, तो वस्तु के स्वरूप का तो निश्चय नहीं होगा। फलतः, वस्तु के संबंध में समारोप अर्थात् मिय्याज्ञान भी हो सकता है। ऐसी स्थिति में आप समारोप अर्थात् मिथ्याज्ञान को प्रमाण भी नहीं कह सकते हैं। यदि आप अंशतः व्यावृत्ति करते हैं, तो उससे भी वस्तु के स्वरूप का निश्चय नहीं होता है, जैसे- 'यह गाय है- इसके निश्चय के लिए यदि आप यह कहते हैं कि यह सींग नहीं है, पूँछ नहीं है आदि-आदि। इस प्रकार, मात्र अन्यापोह या अन्य की व्यावृत्ति ही करते रहने पर भी गाय का कुछ भी हिस्सा नहीं बचेगा, फलतः वह ज्ञान समारोपयुक्त बन जाएगा। इससे भी
295 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 63
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