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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
और स्वर्ग-मोक्ष आदि के विषय में अनुरूप विकल्प उत्पन्न नहीं कर पाता
है।
जैन - बौद्धों के इस कथन की समीक्षा करते हए आचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि आपका यह कथन भी उचित नहीं है, क्योंकि आप क्षणिक पदार्थ पर अस्तित्व का समारोप करते हैं, तो फिर क्षणिकादि पदार्थ से अभिन्न नीलादि रंग के निर्विकल्प-प्रत्यक्ष में नीलादि रंग का समारोप अर्थात् भ्रान्तता मानने का प्रसंग आएगा। निर्विकल्प-प्रत्यक्ष में भी नीलादि रंग को तो आपने विकल्पात्मक माना ही है, तभी 'यह नीला रंग है' ऐसी अनुभूति होती है। एक ओर, आप प्रत्येक पदार्थ को क्षणक्षयी मानते हैं, तो दूसरी ओर, निर्विकल्प-प्रत्यक्ष में नीलादि रंग की अनुभूति भी मानते हैं। ये नीलादि रंग भी उस क्षणक्षयी पदार्थ से भिन्न तो नहीं हैं। यदि आप क्षणक्षयी पदार्थ पर स्थिरतारूप समारोप मानते हैं, तो वे नीलादि रंग भी क्षणक्षयी पदार्थ से भिन्न नहीं होने से नीलादि रंग भी समारोपरूप (मिथ्या आरोपणरूप) होंगे। यदि आप नीलादि रंग पर समारोप नहीं करके मात्र क्षणक्षयी पदार्थों पर ही समारोप मानते हैं, तो इससे तो विरुद्ध-धर्म का अध्यास, अर्थात् विरुद्ध-धर्म का मिथ्या-ज्ञान होने से निर्विकल्प-प्रत्यक्ष के दो भेद हो जाएंगे, जैसे- एक, समारोप से युक्त और दूसरा, समारोप से रहित। प्रथम, क्षणक्षयी पदार्थ समारोप से युक्त होने से तथा दूसरे, नीलादि पदार्थ के समारोपरहित होने से निर्विकल्प-प्रत्यक्ष के दो भेद मानने होंगे, क्योंकि निरंश (अखंड) पदार्थ नीलादिरूप के निर्विकल्प-प्रत्यक्ष में किसी सीमा तक समारोप से आक्रांत होगा तथा किसी अन्य विषय में समारोप से अनाक्रांत भी होगा, किन्तु ऐसा मानना भी उचित नहीं है। वस्तुतः, क्षणिक पदार्थ से नीलादि रंग भिन्न नहीं हैं, यदि आप उन दोनों में भेद करते हैं, तो आपका निर्विकल्प-प्रत्यक्ष किसी भी स्थिति में प्रमाण नहीं बन सकता। आप निर्विकल्प-दर्शन को अनुरूप विकल्पोत्पादक मानकर भी उसे प्रमाण तो मान ही नहीं सकते। 204
बौद्ध - इसके प्रत्युत्तर में बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर अपने मत को पुष्ट करने हेतु कहते हैं कि निर्विकल्प-प्रत्यक्ष निरंश है। पदार्थ के निरंश होते हुए भी उसमें अन्य का निषेध करने में कोई दोष नहीं है। जिस प्रकार 'यह नीला रंग है, तो इस नीले रंग को सिद्ध करने के लिए यह काला
293 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 62 294 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 62
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