________________
रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
225
असमर्थ होती है। वस्तुतः, जो स्वयं अवस्तु है, वह वस्तु को कैसे जानेगी ? फलतः, अवस्तु से किसी प्रकार का विकल्प ही उत्पन्न नहीं होगा, इसलिए वस्तु और अवस्तु में विकल्प से भी एकत्व-अध्यवसाय संभव नहीं है। 3. तीसरे, ज्ञानान्तर से (किसी अन्य प्रकार के ज्ञान से) भी एकत्वाध्यवसाय संभव नहीं है, क्योंकि ज्ञानान्तर को भी आप निर्विकल्प मानेंगे या सविकल्प मानेंगे ? ज्ञानान्तर को चाहे निर्विकल्प माने या सविकल्प मानें, किन्तु ये दोनों भी दृश्य और विकल्प्य (वस्तु और अवस्तु)- इन दोनों को विषय करने में समर्थ नहीं हैं और दोनों को विषय किए बिना एकत्वाध्यवसाय भी संभव नहीं है। वस्तुतः, जो ज्ञान पदार्थ को विषय नहीं करता, वह ज्ञान पदार्थ का उपदर्शन कराने में भी असमर्थ होता है। जिस प्रकार घट-ज्ञान शिंशपा-वृक्ष को विषय नहीं करता, अर्थात् घट-ज्ञान वृक्ष और शिंशपा में ऐक्य करने में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार, दृश्य वस्तु विकल्प्य अवस्तु को विषय करने वाली नहीं होती है। उसी प्रकार, ज्ञान भी दृश्य और विकल्प्य- दोनों में एकत्व का अध्यवसाय करने में समर्थ नहीं होता। इस प्रकार, से, निर्विकल्प-प्रत्यक्ष व्यवसायजनक नहीं होने से प्रामाण्यरूप सिद्ध नहीं होता। दूसरे शब्दों में, व्यवसायजनक न होने से निर्विकल्प-प्रत्यक्ष का प्रामाण्य सिद्ध नहीं होता है, अर्थात् निर्विकल्प-प्रत्यक्ष व्यवसाय को उत्पन्न नहीं करने वाला होने से प्रभावी नहीं हो सकता है।291
पुनश्च, आचार्य रत्नप्रभसरि बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि यदि आप निर्विकल्प-प्रत्यक्ष (अनुभूतिरूप दर्शन) को विकल्प के उत्पन्न होने पर वस्तु-स्वरूप का निर्णय करने में विषयोपदर्शक अर्थात् पदार्थ को दर्शाने वाला मानते हैं, तो आपका वह निर्विकल्प-प्रत्यक्ष क्षणक्षयी पदार्थ और स्वर्ग, मोक्ष आदि के विषय में भी अनुरूप विकल्प को क्यों उत्पन्न नहीं करता है ?292
बौद्ध - इसके प्रत्युत्तर में बौद्ध-दार्शनिक कहते हैं कि क्षणक्षयी पदार्थ और स्वर्ग, मोक्ष आदि के विषय में निर्विकल्प-प्रत्यक्ष अनुरूप विकल्प इसलिए उत्पन्न नहीं करता है कि वह अनादिकालीन-वासना (संस्कार) के कारण उत्पन्न नहीं होने वाला ऐसा विकल्प 'ये सभी रूपादि अक्षणिक हैं, समारोप (भ्रांति) से युक्त हो जाने से वह निर्विकल्प-प्रत्यक्ष क्षणक्षयी पदार्थ
291 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 61 2 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 62
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org