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________________ 224 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा है, इसलिए वस्तु और अवस्तु- इन दोनों का एकीकरण हो जाने से ही वह व्यवसाय वस्तु का उपदर्शक बन सकता है। जैन - इसके प्रत्युत्तर में जैन-दार्शनिक आचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि यदि आप वस्तु-अवस्तु का एकीकरण मानते हो, तो क्या इन दोनों को एक कर देना ही एकरूपता है, या दोनों के निश्चय (व्यवसाय) में एकरूपता है? दोनों के एकीकरण में तो वस्तु-अवस्तु- दोनों में से एक का ही स्वरूप रहेगा, दूसरे का स्वरूप नहीं रहेगा। दूसरे, यदि यह एकीकरण अर्थात् एकत्वरूप अध्यवसाय में दृश्य और विकल्प्य अर्थात् वस्तु और अवस्तु को उपचरित मानेंगे, तो फिर एकत्व का अध्यवसाय विषयोपदर्शक कैसे बनेगा ? क्योंकि साँड में गाय का उपचार करने मात्र से क्या साँड दूध का बर्तन भर देगा ? सारांश यह है कि वस्तु एवं अवस्तु का एक-दूसरे पर मात्र उपचार करने को व्यवसायात्मक नहीं कह सकते हैं। व्यवसायात्मक-प्रमाण तो समारोप से रहित होता है। इस प्रकार, से आपका निर्विकल्प-प्रत्यक्ष व्यवसायात्मक नहीं हो सकता। पुनश्च, आचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों से कहते हैं कि दृश्य और विकल्प्य (वस्तु और अवस्तु)- इन दोनों में एकत्व का जो अध्यवसाय है, वह निर्विकल्प-प्रत्यक्ष से होता है, या फिर विकल्प से होता है ? या किसी अन्य ज्ञान से उत्पन्न होता है ? 1. निर्विकल्प-प्रत्यक्ष से तो वस्तु और अवस्तु में एकत्व का अध्यवसाय संभव ही नहीं है, क्योंकि निर्विकल्प-प्रत्यक्षरूप श्रोत्रिय-वैदिक-ब्राह्मण के द्वारा अध्यवसायरूप चांडाल का स्पर्श करना ही संभव नहीं हैं। ज्ञातव्य है कि बौद्धदर्शन चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय को अप्राप्यकारी मानता है। इस सिद्धांत के अनुसार, आपका प्रत्यक्ष निर्विकल्प होने से अध्यवसायरूप हो नहीं सकता, क्योंकि निर्विकल्प प्रत्यक्ष अवस्तु का विषय-बोध कैसे करा सकता है ? दूसरे, अवस्तु का प्रत्यक्ष भी तो संभव नहीं है, इसलिए निर्विकल्प-प्रत्यक्ष (दर्शन) रूप दृश्य वस्तु और विकल्प्य रूप अवस्तु का एकत्व अध्यवसाय में संभव नहीं है। 2. दूसरे, मात्र विकल्प से भी अध्यवसाय नहीं हो सकता है, क्योंकि विकल्परूप राक्षस दृश्यरूप राम पर आधिपत्य करने में, अर्थात् उसे विषय करने में असमर्थ है, ऐसी स्थिति में एकत्व का अध्यवसाय कैसे होगा? क्योंकि अवस्तु तो विषय करने में, अर्थात् पदार्थ का ज्ञान कराने में 289 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 61 290 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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