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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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निर्विकल्प-प्रत्यक्ष का विषयोपदर्शक बन जाता है, इससे यह सिद्ध हुआ कि बिना विकल्प का निर्विकल्प-प्रत्यक्ष विषयोपदर्शक नहीं कहलाता है। यदि निर्विकल्प-प्रत्यक्ष सामान्य-विकल्प का उत्पादक नहीं हो, तो वह स्वविषयोपदर्शक नहीं बनता है, इसलिए सामान्य के बोध में भी संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूप अनिश्चयात्मक-स्थिति नहीं बनती है और यदि अनिश्चयात्मक-स्थिति उत्पन्न होती है, तो वह स्वविषयोपदर्शक भी नहीं बनता है।287
जैन - बौद्धों के इस कथन पर जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि आपका यह कथन भी उचित नहीं है, क्योंकि निर्विकल्प-प्रत्यक्ष सामान्य का ही व्यवसाय करता है- ऐसा जो आप मानते हैं, तो उस सामान्य में मात्र अन्यथापोह, अर्थात अन्य की व्यावृत्ति होने से वह सामान्य मात्र कल्पना (अवस्तु) रूप ही होगा। अन्य का निषेध करने से वह वस्तुरूप तो होगा नहीं। यदि किसी वस्तु का निश्चित विधान करना हो, तो उसमें मात्र अन्य का निषेध ही करते रहने से उस वस्तु का निर्णय कैसे होगा? जैसे- 'यह गाय है- इसका विधान करने के लिए यह गधा नहीं, अश्व नहीं, भैंस नहीं- ऐसे मात्र एक-एक का निषेध ही करते रहने से "यह गाय हैइसका निर्णय कैसे होगा ? और जब किसी निश्चित वस्तु का निर्णय ही नहीं होगा, तो वह सामान्य तो अवस्तु हो गया, तो ऐसा कैसे कहा जा सकता है कि सामान्य विकल्प का उत्पादक होकर निर्विकल्प-प्रत्यक्ष को विषय का उपदर्शक बना देता है। मात्र सामान्य निर्विकल्प-प्रत्यक्ष को विषय का उपदर्शक नहीं बना सकता, क्योंकि निषेध (अवस्तु) को विकल्प को उत्पन्न करने वाला नहीं कह सकते, अतः, आपका निर्विकल्प-प्रत्यक्ष (दर्शन) प्रमाणरूप नहीं बन सकता है, क्योंकि आप सामान्य को व्यवसायात्मक नहीं कह सकते। 200
बौद्ध - इसके प्रत्युत्तर में बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर कहते हैं कि दृश्य वस्तु और विकल्प्य अवस्तु- इन दोनों को एकीकरण करने से तो व्यवसाय वस्तु का उपदर्शक बन सकता है, अर्थात् दृश्य-वस्तु, जैसे- यह गाय है और विकल्प्य सामान्य रूप अवस्तु, जो निषेधात्मक है, जैसे- यह गधा नहीं, अश्व नहीं, भैंस नहीं आदि- इस प्रकार, से दृश्य वस्तु ‘यह गाय है यह हमारे सामने प्रत्यक्ष है तथा अवस्तु, जो हमारे विचार या अनुभूति में
287 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 60 288 रत्नाकरावतारिका, भाग I रत्नप्रभसूरि पृ. 60
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