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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
स्वीकार कर लिया है, किन्तु आपका निर्विकल्प - प्रत्यक्ष व्यवसायात्मक नहीं बन सकता, इसलिए निर्विकल्प - प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं कहलाएगा। यदि आप निर्विकल्प - प्रत्यक्ष को पदार्थ (विषय) का अनुपदर्शक कहते हैं, तो वह निर्विकल्प- प्रत्यक्ष (दर्शन) विकल्प को उत्पन्न करने के कारण स्वविषयोपदर्शक, अर्थात् स्व-विषय का बोध कराने वाला कैसे बनेगा ? दूसरे, निर्विकल्प - प्रत्यक्ष (दर्शन) में तो संशय, विपर्यय आदि की संभावना होती है। इस प्रकार,, उसमें स्वविषयोपदर्शकता की आपत्ति आने से अतिप्रसंग - दोष आ जाएगा, क्योंकि यदि निर्विकल्प - प्रत्यक्ष विकल्परूप विषयोपदर्शक न होते हुए निर्विकल्प - प्रत्यक्ष ही स्वविषयोपदर्शक बनता हो, तो संशय, विपर्ययरूप ज्ञान को उत्पन्न करने वाला निर्विकल्प - प्रत्यक्ष ही स्वविषयोपदर्शक बन जाएगा और वही प्रमाण बन जाएगा, जैसा कि आप मानते हैं, किन्तु आपका यह निर्विकल्प - प्रत्यक्ष तो संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित नहीं हो सकता है, जैसे- 'स्थाणुर्वा पुरुषोवा', अर्थात् यह स्थाणु अथवा पुरुष है, इसे प्रमाण कैसे कहेंगे ? यदि आपने बिना विकल्प के मात्र स्थाणु की अनुभूति की, तो यह मात्र एक अनुभूतिरूप दर्शन हुआ। इसमें निश्चयात्मकता का बोध नहीं होने से निर्विकल्प - प्रत्यक्ष स्वविषयोपदर्शक नहीं बन सकता, जबकि हमारा प्रमाण तो संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित होने के कारण व्यवसायात्मक है । प्रमाण व्यवसायात्मक या निश्चयात्मक ही होता है। आपका निर्विकल्प - प्रत्यक्ष व्यवसायरहित होने के कारण प्रमाण नहीं हो सकता । 288
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बौद्ध जैनों की इस आपत्ति पर बौद्ध दार्शनिक धर्मोत्तर आचार्य रत्नप्रभ से कहते हैं कि निर्विकल्प - प्रत्यक्ष (दर्शन) में वस्तु या पदार्थ का जो बोध होता है, वह सामान्य रूप होता है और वह सामान्यरूप बोध ही व्यवसाय (निश्चय) करता है। सामान्य मात्र एक जातिवाचक - कल्पना है । यह जातिवाचक - कल्पनारूप सामान्य ही प्रमाण या विकल्प उत्पन्न करता है, जैसे- हमने जब गाय को देखा, तो यह गाय है- ऐसा जो जातिवाचक विकल्प हुआ, वह सामान्य रूप से हुआ । यह गाय है या भैंस है ? इस प्रकार के भिन्न-भिन्न विकल्प नहीं होते हैं, सम्पूर्ण गो जाति का ही विकल्प होता है, अर्थात् यह सम्पूर्ण (निरंश) का विकल्प हमारे विचार में या हमारी सत्ता में रहता है। सामान्य तो हमारी दृष्टि में मात्र एक विकल्प है, अनुभूति है, इसलिए सामान्य - विकल्प जनक होने से वह
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286 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 59, 60
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