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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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साध्य के साथ भी समारोप-परिपन्थी एवं प्रमाणता- ये दोनों हेतु तो होते हैं, अर्थात् कभी-कभी ऐसा भी होता है कि निर्विकल्प-प्रत्यक्ष समारोप-परिपन्थी अर्थात संशय, विपर्यय आदि से रहित एवं प्रमाणरूप होते हुए भी व्यवसायात्मक नहीं होता है। पूर्व में हमने कभी नीले रंग को देखा, उस पूर्वानुभूत नीले रंग की स्मृति से वर्तमान के नीले रंग के साथ तुलना कर यह निर्णय हो गया है कि 'यह नीला रंग ही है, तो यहाँ प्रत्यक्ष तो निर्विकल्प रूप में हुआ। पूर्वानुभूत भूयोदर्शन विकल्पोत्पादक अर्थात् नीले रंग का निर्णय करने में सहायक जरूर हुआ। जिस प्रकार हमारा अनुमान-प्रमाण व्यवसायात्मक होने के साथ समारोप-परिपन्थी एवं प्रमाणरूप भी है, उसी प्रकार निर्विकल्प-प्रत्यक्ष भी समारोप-परिपन्थी एवं प्रमाणरूप होते हुए भी व्यवसायात्मक न होकर व्यवसायजनक है, अतः, उसकी हेतु के साथ व्याप्ति मानने में कोई विरोध नहीं है, अर्थात् समारोप-परिपन्थी और प्रमाणरूप हेतु व्यवसायजनक साध्य के साथ व्याप्त भी हैं।281 जैन- यहाँ आचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों की समीक्षा करते हुए कहते हैंआपने प्रमाण के व्यवसायजनक होने की सिद्धि में जो हेतु दिया है कि निर्विकल्प-प्रत्यक्ष समारोप-परिपन्थी एवं प्रमाणरूप होते हुए भी व्यवसायात्मक नहीं होता है, किन्तु व्यवसायजनक अवश्य होता है, यह आपका तर्क प्रमाणरूपी साध्य के साथ अविसंवादक नहीं है। अविसंवादकत्व की अर्थप्रापकत्व अर्थात् पदार्थ-बोध करने के साथ व्याप्ति है, क्योंकि जो ज्ञान अर्थ-प्रापक होता है, अर्थात् जो ज्ञान पदार्थ का बोध कराए, वही अविसंवादी होता है और जो अर्थ-प्रापक नहीं होता, अर्थात् जो पदार्थ को एवं स्वयं को दर्शाने वाला नहीं होता, वह निर्विषय ज्ञान के समान अविसंवादक भी नहीं बनता है। अर्थ-प्रापकत्व की प्रवर्तकत्व के साथ अर्थात् पदार्थ प्राप्त करने के प्रयत्न के साथ व्याप्ति-संबंध है और प्रवर्तकत्व का (प्रयत्नशीलता का भी) विषयोपदर्शक (पदार्थ-दर्शन) के साथ व्याप्ति-संबंध है, क्योंकि पदार्थ स्वयं, स्वयं का बोध कराने में समर्थ होता है, वह ज्ञान-प्रवर्तक (पदार्थ स्वयं स्व का बोध कराने वाला) होता है, कारण यह है कि ज्ञान कभी भी किसी का हाथ पकड़कर यह नहीं कहता
281 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 57
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