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________________ रत्नाकरावतारका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा कि 'मैं ज्ञान हूँ, किन्तु वह स्व- विषय का ज्ञान कराकर प्रवर्तक और अर्थप्रापक बनता है । 282 220 बौद्धों द्वारा दी गई इस व्याप्ति के बारे में आचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं- निर्विकल्प - प्रत्यक्ष को आप विकल्पोत्पादक कहकर उसको प्रमाणरूप मानते हैं, तो वह निर्विकल्प - प्रत्यक्ष किस अवस्था में प्रमाणरूप बनता है ? अर्थात् निर्विकल्प - प्रत्यक्ष विषयोपदर्शक (पदार्थ - दर्शक ) कब बनता है ? प्रथमतः, क्या निर्विकल्प- प्रत्यक्ष (अनुभूतिरूप दर्शन) वस्तु - स्वरूप के निर्णय में विकल्प के उत्पन्न होने पर विषयोपदर्शक अर्थात् पदार्थ को दर्शाने वाला बनता है ? अथवा निर्विकल्प - प्रत्यक्ष के होते ही तुरंत विषयोपदर्शक (पदार्थ - दर्शक ) बनता है ? पहला तर्क यदि आप यह देते हैं कि निर्विकल्प - प्रत्यक्ष विकल्पोत्पत्ति के पश्चात् विषयोपदर्शक बनता है, तो आपका यह तर्क युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि आपके इस कथन में क्षणिकता का दोष आ जाता है । विनश्वर - स्वभाव वाले पदार्थ तो एक क्षण प्रतीत होकर दूसरे ही क्षण नष्ट हो जाते हैं, तो आपका निर्विकल्प - प्रत्यक्ष ( अनुभूतिरूप दर्शन ) तो विकल्प उत्पन्न करके तुरंत ही नष्ट हो जाता है, तो वह निर्विकल्प - प्रत्यक्ष विषयोपदर्शक कहाँ रहा ? दूसरा, यदि आप यह कहते हैं कि विकल्प के उत्पन्न होते ही निर्विकल्प - प्रत्यक्ष विषयोपदर्शक बनता है, यह भी उचित नहीं है, क्योंकि आपका यह कथन तो ऐसा हुआ, जैसे कोई व्यक्ति मुंडन कराने के पश्चात् यह नहीं पूछता कि कौनसा नक्षत्र है ? उसी प्रकार, विषयोपदर्शकतारूप कार्य के होने के पश्चात्, अर्थात् 'यह नीला रंग है- ऐसे विकल्प का उत्पादक निर्विकल्प - प्रत्यक्ष विषयोपदर्शकता में कोई कारणभूत नहीं रहता है । 283 इस प्रकार, 'जिस विषय में निर्विकल्प - दर्शन (अनुभूतिरूप बोध) विकल्प को उत्पन्न करता है, उसी में उस निर्विकल्प - दर्शन की प्रमाणता है इससे तो आपके सिद्धांत में विरोध उत्पन्न होता है । व्यवसायोत्पत्ति विकल्पोत्पत्ति के बिना भी जब विषयोपदर्शकता का सद्भाव निर्विकल्प-दर्शन में होता है, तो प्रामाण्य का भी सद्भाव विकल्पोत्पत्ति के बिना ही निर्विकल्प - दर्शन में हो जाता है, क्योंकि निर्विकल्प - दर्शन का प्रामाण्य तो विषयोपदर्शन के लिए होता है और विषयोपदर्शकता तो निर्विकल्प - दर्शन की उत्पत्ति के पश्चात् ही आपने मानी है, अर्थात् पदार्थ 282 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 57, 58 283 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 58 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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