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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
बौद्धदर्शनानुसार, जो ज्ञान व्यवसायरहित होता है, वह स्मृति का हेतु नहीं होता है, क्योंकि आप बौद्धों के मतानुसार जिस समय अश्व का साक्षात्कार होगा, उसी समय स्मृतिरूप गो का साक्षात्कार भी संभव नहीं होगा, क्योंकि वह अश्व का साक्षात्कार व्यवसायात्मक नहीं होता है, किन्तु हमारे (जैन) मतानुसार तो गोदर्शन स्मृतिरूप संस्कार का जनक होने के कारण व्यवसायात्मक या सविकल्पात्मक-ज्ञान है। निर्विकल्प-प्रत्यक्ष व्यवसायात्मक-ज्ञान का जनक नहीं हो सकता है। आपके (बौद्धों के) अनुसार, यह मानना कि एक निर्विकल्प अनुभव व्यवसायजनक होकर दूसरे व्यवसायात्मक-ज्ञान का उत्पादक हो, यह युक्तिसंगत नहीं बैठता है, अतः, प्रमाण कभी भी निर्विकल्प न होकर विकल्पात्मक ही होता है। प्रमाण के सविकल्पात्मक होने के कारण आपके ये हेतु असिद्ध-दोष से बाधित हो
जाते हैं।279
इस प्रकार, आचार्य रत्नप्रभ बौद्ध-दार्शनिकों से कहते हैं कि प्रमाण सविकल्प-ज्ञानरूप होने से व्यवसायात्मक ही होता है। दूसरे; अभ्यास, प्रकरण, बुद्धि-चातुर्य एवं अर्थित्व- ये चारों भी विकल्पात्मक होने के कारण व्यवसायात्मक ही होते हैं। इनको विकल्पोत्पादक मानकर निर्विकल्प-प्रत्यक्ष से निर्णयात्मक-प्रमाण की सिद्धि संभव नहीं हो सकती। आपका निर्विकल्प-प्रत्यक्ष तो मात्र अनुभूतिरूप-दर्शन है और दर्शन कभी भी प्रमाण नहीं हो सकता। ज्ञान ही प्रमाण है और ज्ञानरूप प्रमाण व्यवसायात्मक या निश्चयात्मक ही होता है। हमारा अवग्रह चाहे ज्ञानरूप होते हुए भी व्यवसायात्मक न हो, किन्तु अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के माध्यम से अन्तिम स्थिति में पहुँचकर व्यवसायात्मक बन जाता है, अत:, व्यवसायात्मक-ज्ञान ही प्रमाण है। 80
बौद्ध - बौद्ध-दार्शनिक आचार्य रत्नप्रभ से अपने पक्ष के समर्थन में कहते हैं कि प्रमाण व्यवसायात्मक नहीं होता है। सूत्र में आए हुए समारोप-परिपन्थित्व और प्रमाणत्व- ये दोनों हेतुओं को व्यवसायात्मक-स्वभावरूप के साध्य के साथ व्याप्त मानना युक्तिसंगत नहीं है, अर्थात् जो भी प्रमाण होगा वह व्यवसायात्मक ही होगा, ऐसा अविनाभाव-संबंध आवश्यक नहीं होता है, क्योंकि व्यवसाय-स्वभाव अर्थात् निर्णयात्मकता के अभाव में भी किसी स्थान पर मात्र व्यवसाय-जनकरूपी
279 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 56 280 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 56
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