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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 217 निर्विकल्प-प्रत्यक्ष की प्रमाणरूपता की सिद्धि में बौद्ध-दार्शनिक द्वारा दिया गया चौथा तर्क अर्थित्व (प्रयोजन) भी जैनों को उचित नहीं लगता है। यहाँ रत्नप्रभसरि कहते हैं कि आपके अनुसार अर्थित्व अर्थात प्रयोजन जिज्ञासारूप और अभिलाषारूप- ऐसे दो प्रकार का होता है (बौद्धों के अनुसार जिज्ञासा और अभिलाषा- दोनों निर्णयरूप अर्थात व्यवसायात्मक नहीं हैं), किन्तु जैनों का मत है कि किसी भी विषय का अर्थित्व (प्रयोजन) सविकल्प होकर व्यवसायात्मक ही होता है। कोई भी तथ्य निश्चयात्मक होगा, तभी आपको उसको जानने की इच्छा होगी, अर्थात् उसके प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होगी। जिज्ञासा के पश्चात् अभिलाषा, अर्थात् उसको प्राप्त करने की जो इच्छा होगी, वह भी व्यवसायात्मक ही होगी। जैन-दार्शनिक रत्नप्रभसूरि बौद्ध-दार्शनिकों से कहते हैं कि जिज्ञासारूप अर्थित्व (प्रयोजन) पूर्वानुभूत नीले आदि अनेक रंगों में से नीले रंग-विशेष के प्रति ही जिज्ञासा को जन्म देता है कि 'यह नीला रंग ऐसा होता है। रत्नप्रभ पूछते हैं कि इस नीले रंग के प्रति नीले-विषयक जो जिज्ञासा हुई, इसको आप विकल्पात्मक मानकर भी निर्विकल्प-बोध कैसे कह सकते हैं ? जिज्ञासा का आप अनुभूतिरूप-दर्शन नहीं कर सकते हैं। जिज्ञासा भी ज्ञानरूप ही होती है और ज्ञानरूप होने से सविकल्प ही होती है। यह ठीक है कि जिज्ञासा अवग्रहरूप ज्ञान के समान अनिर्णयात्मक अवश्य हो सकती है, किन्तु जिज्ञासा, अर्थात् किसी विशेष को जाननेरूप इच्छा ज्ञानरूप होने से विकल्पात्मक ही होती है। दूसरे, आपके मतानुसार तो जिज्ञासारूप अर्थित्व क्षणिक-पदार्थ के प्रति कैसे होगा ? क्षणिक-पदार्थ तो एक क्षण प्रतीत होकर दूसरे क्षण ही नष्ट हो जाता है, तो उसके प्रति जिज्ञासा नहीं हो सकती। दूसरे, आपने जो कहा कि अभिलाषारूप अर्थित्व भी निर्विकल्प-प्रत्यक्ष में सहायक होने के साथ व्यवसायशून्य होता है। आपका यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनभिलषित पदार्थ के प्रति भी जब व्यवसायात्मक-ज्ञान हो सकता है, तो अभिलषित के प्रति व्यवसायात्मक-ज्ञान क्यों नहीं होगा ? वस्तुतः, जिज्ञासा और अभिलाषारूप अर्थित्व पूर्वानुभूत स्मृति से होता है। पूर्वानुभूत स्मृति के कारण ही वर्तमान वस्तु के प्रति जिज्ञासा और अभिलाषा होती है, जो निर्विकल्प न होकर सविकल्प ही होती है। 278 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 56 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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