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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा प्रत्यक्ष होता ही है। यदि ऐसा नहीं मानें, तो नील आदि के बोध में बद्धि पाटव और क्षणिकता के बोध में बुद्धि को अपाटव मानना होगा और इस प्रकार, नील आदि पदार्थों में और उनकी क्षणिकता में अभेद के स्थान पर भेद हो जाएगा। निरंश-वस्तु के संदर्भ में एक अंश का स्मरण और एक अंश का अस्मरण संभव नहीं है। इस प्रकार, यदि प्रमाण व्यवसायात्मक नहीं होगा, क्षणिकत्व आदि की अनुभूति के अभाव में वह स्मृति का हेतु भी नहीं बनेगा। आप बौद्धों के मत में अश्व के विकल्प के समय गो का दर्शन या गो का विकल्प व्यवसायशून्य होगा, किन्तु अश्व-विकल्प के समय गो का अनुस्मरण या विकल्प तो होता ही है, क्योंकि उसके अभाव में अपोह के माध्यम से गो का निराकरण करके अश्व का विकल्प भी नहीं होता। गो और अश्व में भेद करना संभव नहीं होगा। इस प्रकार, अश्व विकल्प के समय गो का अनुस्मरण भी व्यवसायात्मक ही होगा। इस प्रकार, यही सिद्ध होता है कि प्रत्यक्ष निर्विकल्प न होकर, अर्थात् दर्शनरूप न होकर व्यवसायात्मक ही होता है।16
आचार्य रत्नप्रभसरि बौद्धों से कहते हैं कि आपका तीसरा तर्क यह है कि बुद्धि-चातुर्य से निर्विकल्प-प्रत्यक्ष अर्थ को जान लेता है। आप जो यह कहते हैं कि क्षण-क्षयी पदार्थ एवं नीलादि रंग- ये दोनों ही बुद्धि के समक्ष समान ही होते हैं, बुद्धि ही विकल्प-उत्पादक है, किन्तु आपका यह कथन भी उचित नहीं है, क्योंकि बुद्धि स्वयं तो दोनों को अलग-अलग ही जानेगी, जबकि आप तो प्रत्येक पदार्थ को निरंश (समग्र) मानते हो। यदि आप निरंश नहीं मानें, तो बुद्धि उसका ज्ञान कैसे करेगी ? बुद्धि से तो नीलादि रंगों का ज्ञान समग्ररूपेण होता है, वह खण्ड-खण्ड करके ज्ञान नहीं करती है। यहाँ आचार्य रत्नप्रभ बौद्धों से पुनः प्रश्न करते हैं कि यदि आप यह तर्क देते हैं कि बुद्धि-सामर्थ्य से निरंश (समग्र) वस्तु का भी ज्ञान होता है एवं क्षण-क्षयी वस्तु का भी ज्ञान होता है, तो फिर दोनों में भेद कौन करता है ? भेद से तो दोनों में विरोध हो जाएगा, अतः, हमारे सिद्धान्तानुसार बुद्धि दोनों का अभेदरूप से सविकल्पात्मक निश्चयात्मक-ज्ञान करती है। आपका जो यह तर्क है कि बुद्धि-चातर्य से निर्विकल्प-प्रत्यक्ष से बुद्धि के द्वारा निर्णयात्मक-ज्ञान होता है ? यह उचित नहीं है।
276 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 56 सा रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 56
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