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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा उसके पश्चात् भी अनेक बार नीले रंग को देखने का प्रसंग आया हो, बार-बार नीले रंग के देखने से, अर्थात् भूयोदर्शनरूप अभ्यास से उस नीले रंग की स्मृति हमारे मस्तिष्क में संस्कारित हो जाती है, परिणामस्वरूप जब कभी भी नीले रंग को देखेंगे, तो पूर्वानुभूत नीले रंग के संस्कार से वर्त्तमान के नीले रंग से तुलना कर तुरंत ही यह निर्णय हो जाता है कि काले, लाल, पीले आदि अन्य रंगों से भिन्न यह नीला रंग ही है, या नीला रंग ऐसा ही होता है। यद्यपि हमारे ये संस्कार इतनी त्वरित गति से होते हैं कि हम शीघ्र ही उसके नीले रंग होने के निश्चय पर पहुँच जाते हैं, यही निर्विकल्प - प्रत्यक्ष विकल्पोत्पादक होकर प्रमाणरूप हो जाता है। 274 पुनः, आचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों से कहते हैं- यह ठीक है कि जिस क्षण हमने, यह नीला रंग ही है- ऐसा निर्णय किया, यह निर्णय भूयोदर्शनरूप अभ्यास से हुआ । निर्विकल्प - प्रत्यक्ष में अभ्यास के विकल्पोत्पादक होने से वह प्रत्यक्ष-प्रमाणरूप हो जाता है। यह जो आपने (बौद्धों ने) तर्क दिया है, यह ठीक नहीं है, क्योंकि इसके अनुसार तो प्रमाण सविकल्पात्मक ही हुआ । इसके प्रत्युत्तर में बौद्ध कहते हैं- हम तो यह कहते हैं कि हमारा निर्विकल्प - प्रत्यक्ष ही अभ्यास आदि से विकल्पोत्पादक होता है, किन्तु प्रत्यक्ष तो निर्विकल्प ही होता है। आपके दर्शन में भी अवग्रह आदि ज्ञानरूप होते हुए भी अनिर्णयात्मक है, उसी प्रकार हमारा निर्विकल्प - प्रत्यक्ष प्रमाणरूप होते हुए भी अनिर्णयात्मक है। विकल्प प्रत्यक्ष से नहीं, वरन् अभ्यास आदि से होता है। 275 पुनः जैनाचार्य बौद्धों से कहते हैं कि आपका दूसरा तर्क प्रकरण है । प्रस्तुत प्रसंग में प्रकरण शब्द संदर्भ का सूचक है। कोई भी ज्ञान संदर्भ के बिना नहीं होता है। क्षण- विनश्वर स्वभाव वाले पदार्थ का कथन करते समय भी उसकी क्षणिकता का संदर्भ भी उपस्थित ही रहता है, क्योंकि कोई भी कथन प्रकरण अर्थात् संदर्भ के अभाव में संभव नहीं होता है। कथन के समय प्रकरण (सन्दर्भ) सहकारी होता है और वह सविकल्प ही होगा । बुद्धिपाटव की अपेक्षा से भी नील आदि के बोध के समय क्षणिकत्व का भी बोध रहता ही है और यह बोध निर्विकल्प न होकर सविकल्प या निश्चयात्मक ही होता है । पुनः, आपके मत में नील आदि को प्रत्यक्ष - निरंश माना गया है, अतः, नील आदि के प्रत्यक्ष के समय उनकी क्षणिकता का भी 274 275 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 56 'रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 56 215 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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