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________________ 214 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा सकता है, अर्थात् नीले रंग से भिन्न रंगों का क्षणिक निर्विकल्प–प्रत्यक्ष होते हुए भी वह संस्कारजनक नहीं बन सकता है। उसी प्रकार, गो-दर्शन में निर्विकल्प-प्रत्यक्ष भी संस्कार को उत्पन्न नहीं करता है। गो-दर्शन के बाद जो उसकी स्मृति होती है, वह स्मृति संस्कार के बिना संभव नहीं हो सकती और संस्कार का निर्माण प्रत्यक्ष को व्यवसायात्मक या निश्चयात्मक मानें बिना संभव नहीं है। स्मृति और संस्कार क्षणिक निर्विकल्प-प्रत्यक्ष में संभव नहीं हो सकते हैं। प्रतिक्षण विनश्वर स्वभाव वाले पदार्थ का कथन करते समय स्मरण या संस्कार ही कार्य करते हैं और संस्कार विकल्पात्मक ही होते हैं, अतः, आप बौद्ध लोगों को प्रमाण को व्यवसायात्मक ही मानना चाहिए। निर्विकल्प-प्रत्यक्ष में संस्कार और स्मृति का अभाव होने से व्याप्ति-संबंध की स्थापना भी संभव नहीं होगी। इस प्रकार, इस सम्बन्ध में अनुमान-प्रमाण भी घटित नहीं होगा, अतः, प्रत्यक्ष का प्रामाण्य उसके व्यवसायात्मक होने पर ही संभव है। बौद्ध - इसके उत्तर में बौद्ध आचार्य रत्नप्रभसूरि से कहते हैं कि अभ्यास, प्रकरण, बुद्धि की पटुता (चातुर्य) और अर्थित्व- इन कारणों के सहकार से निर्विकल्प-प्रत्यक्ष में भी गो-दर्शन के पश्चात् स्मृति और संस्कार संभव हो सकते हैं, किन्तु यहाँ रत्नप्रभसूरि का कथन है कि प्रतिक्षण विनश्वर पदार्थ में अभ्यास, प्रकरण, बुद्धि-चातुर्य और अर्थित्व- इन कारणों का अभाव होने से स्मृति एवं संस्कार संभव नहीं हो सकते। जैन - जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों से कहते हैं कि आपने जो कहा कि अभ्यास, प्रकरण, बुद्धि चातुर्य एवं अर्थित्व- ये चार निर्विकल्प-प्रत्यक्ष में विकल्प उत्पादक होकर निर्विकल्प-प्रत्यक्ष को निर्णयात्मक या निश्चयात्मक बना देते हैं, किन्तु आपका यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। आप भूयोदर्शन अर्थात् अभ्यास से निर्विकल्प-प्रत्यक्ष को प्रमाणरूप होने की पुष्टि कर रहे हैं, अर्थात् किसी भी वस्तु को पुनः-पुनः देखने से अभ्यास के कारण उसको निर्विकल्प-प्रत्यक्ष में भी उसके स्वरूप का निर्णय हो जाता है। इस सम्बन्ध में हम जैनों का तर्क यह है कि भूयोदर्शनरूप अभ्यास भी पूर्वानुभूत विषय की स्मृतिरूप ही तो है, जबकि आप तो स्मृति को प्रमाण मानते ही नहीं हैं। इसके प्रत्युत्तर में बौद्ध कहते हैं- मान लो हमने पूर्व में कभी नीले रंग को देखा हो और 272 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 54 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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