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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
सिद्ध कर ही नहीं सकते। निर्विकल्प - प्रत्यक्ष का प्रामाण्य भी उसके व्यवसायात्मक - ज्ञान ( निश्चयात्मक - ज्ञान ) होने पर ही होता है, अतः, सविकल्प (निश्चयात्मक) ज्ञान ही प्रमाण होता है। 270
बौद्ध निर्विकल्प - बोध के प्रामाण्य की पुष्टि करते हुए बौद्ध- दार्शनिक आचार्य रत्नप्रभसूरि से कहते हैं कि यदि निर्विकल्प - प्रत्यक्ष को प्रमाणरूप नहीं माना जाएगा, तो फिर वह प्रमाणरूपता विकल्प के साथ उत्पन्न हो ही नहीं सकती है, क्योंकि एक विकल्प दूसरे विकल्प के साथ उत्पन्न नहीं होता है, जबकि हमारे सिद्धान्तानुसार निर्विकल्प - प्रत्यक्ष तो विकल्प के साथ भी उत्पन्न हो सकता है, इसलिए प्रमाण विकल्परूप न होकर निर्विकल्प - प्रत्यक्षरूप है। इसका कारण यह है कि जिस समय हम अश्व को प्रत्यक्ष देखते हैं, या अश्व से साक्षात्कार होता है, उस समय हम इन्द्रिय (चक्षुरिन्द्रिय) के द्वारा गो का भी प्रत्यक्षीकरण कर सकते हैं, अथवा हमारी चेतना में गो की स्मृति भी रह सकती है। यदि हम अश्व का सविकल्प - ज्ञान प्राप्त करते हैं, उस समय गाय का स्मरण या प्रत्यक्ष न हो, तो कालान्तर में गो की स्मृति भी नहीं रहेगी। इस प्रकार, उपर्युक्त अनुमान से निर्विकल्प - प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने के लिए उसके व्यवसायात्मक होने की आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार,, व्यवसायात्मक -- ज्ञान ही प्रमाण होता है- इस कथन से आपका कथन खण्डित हो जाता है, क्योंकि 'गो प्रत्यक्ष - निर्विकल्प - बोध प्रत्यक्ष होकर भी व्यवसायात्मक नहीं होता है, अतः हमारा निर्विकल्प - प्रत्यक्ष ही प्रमाण हो सकता है 1271
जैन इस पर, जैन- दार्शनिक रत्नप्रभसूरि बौद्धों से कहते हैं कि जिस समय गाय का प्रत्यक्ष होता है, उस समय उसमें अश्व आदि विकल्पों का निषेध भी होता है। 'यह गाय है- ऐसा निश्चय अन्य विकल्पों के निषेध के बिना संभव नहीं है, अतः प्रत्यक्ष सविकल्प ही होता है । पुनः, यदि प्रत्यक्ष को सविकल्प अर्थात् व्यवसायात्मक या निश्चयात्मक न माना जाए, तो फिर कालान्तर में उस प्रत्यक्ष की स्मृति भी संभव नहीं होगी । कालान्तर के गो-दर्शन में पूर्व-प्रत्यक्ष का स्मरण होने से प्रत्यक्ष को व्यवसायात्मक अर्थात् निश्चयात्मक ही मानना होगा। आप बौद्ध - दार्शनिक स्वयं ही यह मानते हैं कि क्षणिक निर्विकल्प - प्रत्यक्ष संस्कारजनक नहीं बन
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रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 52
रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 54
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