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________________ 212 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा निश्चयात्मक ही होता है। इसके पश्चात् भी, जब कभी पुनः उसी प्रकार के नीले रंग को हम देखते हैं, तो, ऐसा रंग नीला होता है- ऐसा जो विशेष ज्ञान होता है, वह ज्ञान निश्चयात्मक रूप से ही होता है। वह ज्ञान निर्णयात्मक या विकल्परूप होने से सविकल्प-प्रत्यक्ष ही हुआ, वह निर्विकल्प–प्रत्यक्ष कहाँ रहा। ऐसा अनुभूतिरूप स्वसंवेदन निश्चयात्मक होने पर ही प्रमाणरूप होता है, अत:, निर्विकल्पात्मक-प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हो सकता है। इसी प्रकार 'यह निर्विकल्प-बोध है- ऐसे विकल्प का उत्पादक ज्ञान भी सविकल्प होने से ही प्रमाण होगा, मात्र निर्विकल्प-स्वसंवेदन प्रमाण नहीं हो सकता है। पुनः, आचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों से कहते हैं कि स्वसंवेदनरूप निर्विकल्प-प्रत्यक्ष को यदि आप विकल्प से प्रमाण सिद्ध करना चाहें, तो भी यह संभव नहीं है। दूसरे, यदि आप स्वसंवेदनरूप निर्विकल्प-प्रत्यक्ष से ही उसके प्रमाण (ज्ञान के प्रामाण्य या निश्चयात्मकता) की सिद्धि करेंगे, तो क्या मात्र वस्तु के स्वरूप-दर्शन से ही सिद्धि होगी ? या दूसरे किसी विकल्प (निर्णय) को उत्पन्न करने से सिद्धि होगी ? प्रथमतः, स्वरूपोपदर्शन की अनुभूतिरूप निर्विकल्प-प्रत्यक्ष से ही प्रामाण्य की सिद्धि मानें, तो आपके सिद्धान्त के अनुसार उसमें सबसे पहला दोष क्षणिकता का होगा, क्योंकि क्षण-क्षयी, अर्थात् प्रत्येक क्षण नष्ट होने वाले पदार्थ का ज्ञान प्रमाण कैसे होगा, या अहिंसा दानादि में स्वर्ग प्राप्त कराने की शक्ति है- ऐसा ज्ञान प्रमाण कैसे होगा? आपके मतानुसार, प्रथम क्षण के पश्चात् दूसरे क्षण में वस्तु नष्ट हो जाती है, तो फिर आप निर्वाण या स्वर्ग को अक्षय कैसे मानेंगे? दूसरे, यदि यह कहते हैं कि नए-नए विकल्पों के उत्पन्न होने से, अथवा यह कहो कि एक के पश्चात् एक विकल्प के उत्पन्न होने से प्रामाण्य की सिद्धि होती है, तो फिर तो एक विकल्प को उत्पन्न करने के लिए दूसरे विकल्प की तथा दूसरे विकल्प को उत्पन्न करने के लिए तीसरे विकल्प की आवश्यकता होगी। इससे तो अनवस्था-दोष हो जाएगा और इस प्रकार, से स्वसंवेदनरूप निर्विकल्प-प्रत्यक्ष की प्रमाणरूपता की सिद्धि संभव नहीं है। इससे तो आपके पक्ष का आंशिक खण्डन हो ही जाता है, इसलिए हम जो यह कहते हैं कि प्रमाणरूप ज्ञान व्यवसायात्मक ही होता है, यह सिद्धांत किसी प्रकार से खण्डित नहीं हो सकता, कारण स्पष्ट है कि नीले रंग आदि के ज्ञान को आप अव्यवसायात्मकता (अनिश्चयात्मकता) 269 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि. पृ. 52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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