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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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तो हम मात्र अनुमान से ही प्राप्त कर सकते हैं। यदि निर्वाण (मोक्ष) का प्रत्यक्ष होना संभव माना जाएगा, तो फिर चार्वाक-दर्शन को, जो प्रत्यक्ष-प्रमाण से सिद्ध नहीं होने के कारण निर्वाण या स्वर्ग के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता है, उसे भी मोक्ष या स्वर्ग को स्वीकार कर लेना चाहिए। ज्ञातव्य है कि चाहे मोक्ष या स्वर्ग का इन्द्रियों के माध्यम से प्रत्यक्ष ज्ञान न भी हो, फिर भी वह अतीन्द्रिय-ज्ञान होने से निश्चयात्मक-ज्ञान ही है। प्रत्येक पदार्थ भावात्मक एवं अभावात्मक- ऐसे दो धर्मों से युक्त होता है। जिस समय हमें किसी वस्तु के नीले रंग का प्रत्यक्ष या बोध होता है, उसी समय उस नीले रंग के विरोधी रंगों का बोध (ज्ञान या अनुभव) भी हमारी स्मृति में रहता है, तभी यह नीला रंग ही है, अन्य लाल, पीला आदि रंग नहीं हैं- ऐसा निश्चयात्मक-ज्ञान कर सकते हैं। इस प्रकार, से, जब अहिंसा एवं दान आदि धार्मिक-क्रियाओं का निश्चयात्मक-ज्ञान होता है, उसी समय उनसे प्राप्त होने वाले मोक्ष या स्वर्ग का भी निश्चयात्मक-ज्ञान होता है।
इस प्रकार, से, निरंशवादी बौद्ध-दर्शन के स्वसंवेदन से वस्तु के स्वरूप का निश्चय हो जाता है- यह युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता है। प्रतिक्षण नष्ट होने वाली वस्तु का निश्चयात्मक-ज्ञान या अहिंसा के पालन या दानादि की क्रियाओं में स्वर्ग प्राप्त कराने की शक्ति है - ऐसा ज्ञान निर्विकल्प-प्रत्यक्ष से संभव नहीं है, अतः, रत्नप्रभसूरि कहते हैं- क्योंकि निर्विकल्प-प्रत्यक्ष निश्चयात्मक-ज्ञान (व्यवसायात्मक-ज्ञान) प्रदान करने में समर्थ नहीं है, अतः, वह प्रमाण भी नहीं है।
जैन - पुनः, आचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्ध-दार्शनिकों से कहते हैं कि 'यह निर्विकल्प-बोध है - ऐसे विकल्प के उत्पादक ज्ञान को आप प्रमाण कहते हैं, या वस्तु के स्वरूप-दर्शन द्वारा जो अनुभूतिरूप स्वसंवेदन होता है, उसे प्रमाण कहते हैं ? यदि उस स्वसंवेदनरूप निर्विकल्प-प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं, तो हमें आपका यह पक्ष उचित नहीं लगता है, क्योंकि निर्विकल्प-प्रत्यक्ष में, अर्थात् सर्वथा विकल्परहित अनिर्णयात्मक प्रथम बोध में जब हम प्रथम बार नीले रंग को देखते हैं, तो उसका सर्वप्रथम बोध (दर्शन) होता है, फिर हम जानते हैं कि ऐसा रंग नीला होता है। नीले रंग के दर्शन के पश्चात्, यह नीला रंग है- ऐसा जो ज्ञान होता है, वह
267 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 52 268 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 52
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