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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
प्रत्येक क्षण नष्ट होने वाले पदार्थ को एवं अहिंसा, दान आदि में स्वर्ग प्राप्त कराने की शक्ति है- इसको भी प्रमाण मानना पड़ेगा।
बौद्ध-दर्शन सिर्फ अनुभूति को प्रत्यक्ष मानता है, साथ ही वह अनुभूतिरूप नीले रंग आदि प्रत्येक विषय के प्रत्यक्ष को निरंश मानता है। जिस समय नीले रंग आदि का जो प्रत्यक्ष होता है, वह प्रत्यक्ष तो अनुभूतिरूप होता है, अर्थात् उसमें नीले रंग का अनुभवमात्र होता है, किन्तु नीले रंग का निश्चयात्मक-ज्ञान नहीं होता है। नीले रंग का निश्चयात्मक-ज्ञान तो तभी हो सकता है, जब उसी समय नीले रंग के विरोधी किसी रंग का ज्ञान भी हो, क्योंकि प्रतिपक्षी-रंग के अभाव का निर्णय करके ही, यथा- यह श्वेत रंग नहीं है, यह काला रंग नहीं है, या यह पीला रंग नहीं है, अपितु नीला रंग ही है - इस प्रकार, का सविकल्प-ज्ञान होता है, अतः, वस्तु के स्वरूप निर्णय हेतु सविकल्प-ज्ञान का होना आवश्यक होता है। जब प्रतिक्षण क्षय होने वाले नीले रंग से भिन्न अन्य रंगों का अनुभव या उन अनेक रंगों का ज्ञान हमारी स्मृति में होगा, तभी यह नीला रंग ही है- ऐसा सविकल्पात्मक या निश्चयात्मक-ज्ञान हो सकता है। वस्तुतः, बौद्ध-दार्शनिक मात्र नीले रंग की अनुभूति को प्रत्यक्ष-प्रमाण मानते हैं और प्रतिक्षण नष्ट होने वाले पदार्थ के बोध को अनुमान द्वारा संभव मानते हैं। दूसरे शब्दों में, विकल्पात्मक-ज्ञान को अनुमान द्वारा सिद्ध करते हैं।
जैन - आचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों से कहते हैं कि जिस समय जिस वस्तु का प्रत्यक्ष होता है, उसी समय उसमें उस वस्तु से भिन्न अन्य वस्तुओं अर्थात् पदार्थों के विकल्पों का निषेध (निरसन) भी हो जाता है। यह नीला रंग ही है, ऐसा निश्चयात्मक-ज्ञान अन्य विकल्पों के निषेध के बिना संभव नहीं है, अतः, प्रत्यक्ष सविकल्प ही होता है। आप बौद्ध-दार्शनिक जब संसार की प्रत्येक वस्तु को क्षणिक मानते हैं, तो फिर आपको अहिंसा एवं दान आदि धार्मिक क्रियाओं के स्वरूप-प्राप्ति आदि रूपफल को भी क्षणिक मानना चाहिए। यदि अहिंसा एवं दानादि धार्मिक क्रियाएँ क्षणिक हैं, तो फिर अहिंसा एवं दान आदि क्रियाएँ निर्वाण या स्वर्ग-प्राप्ति के साधन हैं- यह कहना भी संभव नहीं होगा, क्योंकि निर्वाण (मोक्ष) या स्वर्ग का प्रत्यक्ष ज्ञान तो हो नहीं सकता। उसका ज्ञान
265 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 51 266 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नाप्रभसूरि, पृ. 51, 52
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