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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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जैन- इस पर, आचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों से यह प्रश्न करते हैं कि एक ओर आप नीलादि रंगों के निर्विकल्प-प्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हैं, किन्तु दूसरी ओर उसे व्यवसायात्मक (निश्चयात्मक) नहीं मानते हैं - आपका यह कथन हमें उचित नहीं लगता है। निर्विकल्प-प्रत्यक्ष अनुभूतिरूप तो हो सकता है, जैसे - हमारे द्वारा (जैनों द्वारा) मान्य 'दर्शन', किन्तु वह व्यवसायात्मक (निश्चयात्मक) नहीं हो सकता, अतः, वह प्रमाण नहीं है। उस अनुभवरूप बोध की निश्चयात्मकता का ज्ञान आपको कौनसे प्रत्यक्ष से होता है ? क्या इन्द्रिय-प्रत्यक्ष से होता है ? या मानस-प्रत्यक्ष से ? अथवा योगज-प्रत्यक्ष से होता है ? किंवा स्वसंवेदनरूप-प्रत्यक्ष से होता है ? यहाँ जैन-दार्शनिक रत्नप्रभसूरि का कहना है कि 1. निर्विकल्प-प्रत्यक्ष की प्रमाणरूपता का ज्ञान इन्द्रिय-प्रत्यक्ष से तो संभव नहीं है, क्योंकि निर्विकल्प-प्रत्यक्ष में किसी प्रकार का विकल्प (निर्णय) तो होता ही नहीं है। इन्द्रियों में मात्र बोध-सामर्थ्य है, विकल्प (निर्णय) सामर्थ्य नहीं है। यह ऐसा ही है- ऐसा निर्णय सामर्थ्य इन्द्रियों में नहीं है, अतः, वे अपने विषय का अर्थात् पदार्थ का निश्चयात्मक-ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ नहीं हैं। 2. दूसरे, जो पदार्थ इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य होता है. वही पदार्थ मानस-प्रत्यक्ष का भी विषय बनता है। अतः, विकल्प (निर्णय) के अभाव में मात्र मानस-प्रत्यक्ष से भी निश्चयात्मक नहीं हो सकता। मानस-प्रत्यक्ष से भी निश्यात्मक-ज्ञान तो तभी हो सकता है, जब किसी भी पदार्थ का इन्द्रियों द्वारा निश्चयात्मक-ज्ञान हो, अर्थात् यह ऐसा ही है- ऐसा विकल्पात्मक या निर्णयात्मक-बोध है, किन्तु आपके (बौद्ध) मतानुसार तो सविकल्प-ज्ञान तो प्रत्यक्ष का विषय है ही नहीं, वह तो अनुमान का विषय है, अतः, आपके मानस-प्रत्यक्ष से भी सविकल्प अर्थात् निश्चयात्मक-ज्ञान संभव नहीं है। 3. तीसरे, योगज-प्रत्यक्ष से भी निश्चयात्मक-ज्ञान अर्थात् सविकल्प ज्ञान होता है- ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि योगी तो विकल्प करता ही नहीं है, वह तो निर्विकल्प ही रहता है। 4. चौथे, यदि आप स्वसंवेदन से निश्चयात्मक-ज्ञान मानें, तो यह प्रश्न उठता है कि आप (बौद्ध) स्वसंवेदन को, अर्थात् किसी भी वस्तु के स्वसंवेदनरूप स्वरूपोपदर्शन को प्रमाण कहते हैं, या 'यह निर्विकल्प-बोध है- ऐसे विकल्प के उत्पादक को प्रमाण कहते हैं ? वस्तु के स्वरूपदर्शन के द्वारा जो अनुभूतिरूप स्वसंवेदन होता है, वह भी निर्विकल्प होता है, अतः, वह भी निश्चयात्मक नहीं है। यदि आप उस स्वसंवेदनरूप निर्विकल्प-प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं, तो फिर क्षण-क्षयी, अर्थात्
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