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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा 263 स्वतंत्र रूप से प्रमाण की सम्यक् - निश्चयात्मकता को सिद्ध करने में समर्थ हैं । रत्नाकरावतारिका में निम्न अनुमान के आधार पर भी प्रमाण की व्यवसायात्मकता को सिद्ध किया गया है- 1. प्रमाण व्यवसायात्मक ( निश्चयात्मक) होता है, क्योंकि वह समारोप अर्थात् संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय का विरोधी है। जो ज्ञान समारोप का विरोधी नहीं होता, वह निश्चयात्मक भी नहीं होता है, जैसे- यह घट है या पट है- ऐसा संशयात्मक - ज्ञान। 2. दूसरे, प्रमाण व्यवसायात्मक ( निश्चयात्मक) है, क्योंकि वह प्रमाण है। जो व्यवसायात्मक नहीं होता, वह प्रमाण भी नहीं होता, जैसे- यह घट है या पट है आदि ऐसा अनिश्चयात्मक - ज्ञान 1264 208 इस सूत्र में उल्लेखित प्रमाण की व्यवसायात्मकता के आधार पर रत्नप्रभसूर बौद्ध - दर्शन के निर्विकल्प - प्रत्यक्ष का खण्डन करते हैं एवं जैन- दर्शन के प्रमाण की निश्चयात्मकता को सिद्ध करते हैं। रत्नप्रभसूर द्वारा बौद्धों के निर्विकल्प - प्रत्यक्ष की समीक्षा बौद्ध - दर्शन के अनुसार, निर्विकल्प - प्रत्यक्ष प्रमाणरूप है, किन्तु जैनों का कहना है कि निर्विकल्प - प्रत्यक्ष तो मात्र अनुभूतिरूप होता है, निश्चयात्मक नहीं होता है, अतः, वह प्रमाणरूप नहीं हो सकता, जैन-दर्शन तो प्रमाण को निश्चयात्मक मानता है । प्रमाण की निश्चयात्मकता को अनावश्यक बताते हुए बौद्ध - दार्शनिक सर्वप्रथम यह प्रश्न उठाते हैं कि आपके द्वारा, अर्थात् जैन-दर्शन के द्वारा मान्य प्रमाण की निश्चयात्मकता का सिद्धान्त आपके ही द्वारा मान्य अवग्रह की ज्ञानरूपता से अंशतः तो खण्डित हो जाता है। हमारे (बौद्धों) द्वारा मान्य नीलादि रंगों का निर्विकल्प - प्रत्यक्ष तो आपके द्वारा मान्य 'अवग्रह' के समान ही होता है। विकल्परहित नीलादि रंगों का यह प्रत्यक्ष- ज्ञान प्रमाणरूप तो होता ही है, चाहे वह निश्चयात्मक नहीं हो। अनुभव में जो भी आता है, वह प्रथमतः निर्विकल्प ही होता है, जैसे आपके द्वारा मान्य अवग्रह व्यवसायात्मक या निश्चयात्मक नहीं होते हुए भी ज्ञानरूप है और ज्ञान ही प्रमाण है। इस प्रकार, से, आपके द्वारा मान्य प्रमाण में भी एक देश से अर्थात् अंशतः हमारे द्वारा मान्य निर्विकल्पता तो रही हुई है, अतः, प्रमाण - लक्षण में व्यवसायात्मकता आवश्यक नहीं है। 263 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 50 264 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 50 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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