________________
रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
3. जैन-दर्शन की विकास यात्रा और बौद्ध-दार्शनिक-मतों की समीक्षा
जैन-दर्शन की विकास यात्रा आगमयुग से ही प्रारंभ हो जाती है। प्राचीन स्तर के अर्द्धमागधी आगमों में भी बौद्ध-दर्शन की मान्यताओं और उसकी समीक्षा के कुछ सूत्र उपलब्ध होते हैं। यद्यपि अर्द्धमागधी आगमों में आचारांगसूत्र का स्थान सर्वप्रथम आता है, किन्तु यह ग्रन्थ मुख्य रूप से जैन आचार के सिद्धान्तों और नियमों की ही चर्चा करता है। मात्र इसके प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्याय के प्रथम उद्देशक में आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद- इन चार सिद्धातों का निर्देश मिलता है, जो मुख्य रूप से पुनर्जन्म की अवधारणा को प्रस्तुत करता है। चाहे आत्मा के स्वरूप को लेकर जैन और बौद्ध-दर्शन में मतभेद हों, लेकिन पुनर्जन्म की अवधारणा तो दोनों ही दर्शनों में उपलब्ध होती है, अतः, इस ग्रंथ में बौद्धदर्शन की समीक्षा की दृष्टि से हमें कोई संकेत नहीं मिलते हैं और न उसकी दार्शनिक-मान्यताओं का ही कोई निर्देश है। सर्वप्रथम बौद्ध-दर्शन की मान्यताओं का निर्देश और उनकी सामान्य समीक्षा हमें सूत्रकृतांगसूत्र में मिलती है। इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में ही बौद्धदर्शन के पंचस्कंधवाद
और संततिवाद का उल्लेख प्राप्त होता है, किन्तु दार्शनिक-दृष्टि से इस ग्रंथ में इन मान्यताओं की गहन समीक्षा उपलब्ध नहीं होती है, मात्र इतना अवश्य कहा गया है कि यह मत उचित नहीं है। अर्द्धमागधी आगम-साहित्य में बौद्ध-दर्शन से संबंधित एक अन्य उल्लेख हमें ऋषिभाषितसूत्र में मिलता है, जहाँ वज्जीयपुत्त (सारिपुत्त) और महाकश्यप के अध्यायों में बौद्धदर्शन के पंचस्कंधवाद और संततिवाद के निर्देश उपलब्ध हो जाते हैं, किन्तु यहाँ पर उसकी कोई समीक्षा उपलब्ध नहीं होती। जैन धर्म के रायपसेणीयसुत्त और बौद्ध-दर्शन के पयासीसुत्त में आत्मसत्ता या चित्तसत्ता के अस्तित्व के पोषण में अनेक तर्क दिए गए हैं। दोनों ही परंपराओं के ग्रन्थों में ये तर्क समान रूप से मिलते हैं, मात्र अंतर यह है कि जैन-परंपरा में इसे आत्मसिद्धि का आधार बताया गया है, वहीं बौद्ध-परम्परा में इन तर्कों द्वारा चित्त की सत्ता को सिद्ध किया गया है।' इसके अतिरिक्त, अर्द्धमागधी आगम-साहित्य के कुछ ग्रन्थों में शाक्यपुत्रीय
5 सूत्रकृतांग 1/1/1/17? 4 तत्त्वार्थसूत्र 1/2-3 " इसीभासियाई - अध्याय 2 एवं 7 7 रायपसेनीय - परसिकहाणक - 736-764
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org