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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
संबंधी कुछ उल्लेख तो मिलते हैं, किन्तु जैनदर्शनसम्मत प्रमाण-व्यवस्था का सुनिश्चित स्वरूप उनके बाद उपलब्ध होता है। 3. प्रमाणव्यवस्था-युग -
दार्शनिक-समीक्षाओं की दृष्टि से यह युग अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जा सकता है। यद्यपि प्रमाण-चर्चा संबंधी कुछ सूत्र जैन आगमों में उपलब्ध होते हैं, किन्तु वहाँ जैन-दार्शनिक मुख्यतः नैयायिक-दर्शन से ही प्रभावित प्रतीत होते हैं। आगमों में पंचज्ञान की चर्चा तो विस्तार से है, किन्तु प्रमाणों की कोई विशेष चर्चा नहीं है। प्रमाण-चर्चा की अपेक्षा से सिद्धसेन दिवाकर का न्यायावतार एक प्रमुख ग्रन्थ है। इसमें बत्तीस श्लोकों में जैन प्रमाण-व्यवस्था की चर्चा की गई है, किन्तु यह ग्रन्थ भी मात्र प्रारंभिक स्थिति का ही है। प्रमाण संबंधी विशिष्ट चर्चा अकलंक, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि, सिद्धर्षि, हेमचंद्र आदि के ग्रन्थों में ही मिलती है। इस युग की विशेषता यही है कि इस युग के ग्रन्थों में अन्य दर्शनों के दार्शनिक-मतों की समीक्षा ही प्रमुख रूप से की जाती है। यह युग लगभग आठवीं शताब्दी से लेकर लगभग पन्द्रहवींसोलहवीं शताब्दी तक के व्यापक काल-खण्ड को अपने में समाहित करता है। इस युग में जैन-परम्परा में अनेक प्रौढ़ दार्शनिक-ग्रन्थों की रचना हुई। हमारा समीक्ष्य-ग्रन्थ रत्नाकरावतारिका भी इसी कालखण्ड का है। 4. नव्यन्याय-युग -
यद्यपि भारतीय-दर्शन के क्षेत्र में नव्यन्याय का प्रारंभ लगभग तेरहवीं शताब्दी से हुआ। आचार्य गंगेश ने इस शैली का विकास किया, किन्तु यशोविजयजी के पूर्व तक किसी भी जैन-दार्शनिक ने इस शैली का आधार लेकर अपने ग्रन्थों की रचना नहीं की। लगभग सतरहवीं शताब्दी में वाचक यशोविजयजी ने काशी में अध्ययन करके इस शैली को समझा और फिर नव्यन्याय की शैली में जैन-ग्रन्थों की रचना प्रारंभ की। उन्होंने इस शैली में अनेकान्त-व्यवस्था नामक ग्रन्थ लिखकर अनेकान्तवाद की पुनः प्रतिष्ठा की और साथ ही अष्टसहस्री तथा शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि पर नवीन शैली में टीका लिखकर इन ग्रन्थों को युगानुरूप स्वरूप प्रदान किया। जैन-तर्कभाषा, नयप्रदीप, नयरहस्य आदि ग्रन्थों की रचना भी उन्होंने उसी शैली में की। इनके पश्चात्, दिगम्बर-परंपरा में विमलदास की सप्तभंगीतरंगिणी आदि भी इसी शैली में लिखी गई।
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