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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
तदुत्पत्ति-संबंध उपस्थित थे, किन्तु उनकी कठिनाई यह थी कि शब्द और अर्थ में न तो वे तादात्म्य - संबंध को स्वीकार कर सकते थे और न ही तदुत्पत्ति - संबंध को स्वीकार कर सकते थे, क्योंकि उन्हें ये दोनों ही संबंध तार्किक - दृष्टि से सदोष ही प्रतीत हो रहे थे । यद्यपि उनके समक्ष जैनों का वाच्य - वाचक- संबंध भी उपस्थित रहा होगा, किन्तु उनका क्षणिकवाद का सिद्धांत इसके भी विरोध में जाता था। चूंकि सत्ता क्षणिक है, तो ऐसी स्थिति में शब्द और अर्थ में वाच्य - वाचक - संबंध भी संभव नहीं है। यदि शब्द किसी जाति का भी वाचक है, तो उस जाति को क्षणजीवी नहीं माना जा सकता, अतः, शब्द सामान्य या जाति का वाचक है, यह कहना भी कठिन है। जाति की कल्पना भावात्मक है, जबकि अपोह की कल्पना निषेधात्मक है । यद्यपि बौद्ध - दार्शनिक शब्द में वाचक-शक्ति को चाहे अव्यक्त रूप से स्वीकार भी कर लें, किन्तु उनकी समस्या यह है कि शब्द का वाच्य - विषय तो क्षणिक और निरंश स्वलक्षण है, जो किसी भी स्थिति में वाचक नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि जिस शब्द द्वारा उसे वाच्य बनाया जाएगा, उसके उच्चारण-काल में ही वह नष्ट हो जाएगा, अतः, क्षणिक और निरंश स्वलक्षण में संकेत ग्रहण होना संभव ही नहीं है। साथ ही, जब बौद्धों का सामान्य भी काल्पनिक है, तो फिर सामान्य काल्पनिक में ही शब्द - संकेत ग्रहण संभव नहीं है, क्योंकि सामान्य अवस्तुरूप होने से अर्थक्रिया में समर्थ नहीं है । यदि यह माना जाए कि शब्द असांकेतिक अर्थ को वाच्य बनाते हैं, तो यह कथन भी आत्म-विरोधी सिद्ध होगा। ऐसी स्थिति में बौद्धों की यह मजबूरी थी कि वे केवल यह मानें कि शब्द अन्य का अपोह या निषेध मात्र करता है। वस्तुतः, बौद्धों का यह अन्यापोह का सिद्धांत उनके क्षणिकवाद का ही तार्किक - प्रतिफलन था । यही कारण था कि जैन- दार्शनिक अकलंक, विद्यानंदी, वादिदेवसूरि, रत्नप्रभसूरि आदि ने अपोहवाद का निरसन कर यह बताने का प्रयास किया है कि शब्द 'गो' 'अगो की निवृत्ति करने के साथ ही उसके गोत्व का प्रतिपादन भी करता है, इसलिए शब्द का वाच्य विषय सामान्य- विशेषात्मक परिणामी - नित्य वस्तु ही है - ऐसा मानना ही उचित होगा। जैसा कि हम पूर्व में संकेत कर चुके हैं, रत्नकीर्त्ति आदि कुछ बौद्ध - दार्शनिकों ने भी अन्यापोह को केवल निषेधरूप न मानकर विधि - निषेधरूप माना है, क्योंकि यदि अन्यापोह को एकान्तरूप से निषेधपरक ही माना जाएगा, तो शब्द से जन-साधारण की अर्थ में प्रवृत्ति संभव नहीं होगी, अथवा शब्द को किसी अन्य अर्थ में प्रवृत्ति करने के लिए कहा जाए और उसकी प्रवृत्ति किसी अन्य अर्थ में हो जाए,
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