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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
इसीलिए जैन- दार्शनिकों ने शब्द और अर्थ में वाच्य - वाचक-संबंध मानते हुए यह माना है कि शब्द अपने अर्थ के प्रतिपादन में विधि - निषेधरूप होता है। इस संदर्भ में डॉ. धर्मचंद जैन का निम्न कथन ही हमें अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। वे लिखते हैं 'यह मानना उपयुक्त होगा कि प्रत्येक शब्द जिस प्रकार विधि अर्थ का वाचक होता है, उसी प्रकार वह उससे अन्य का अपोह भी करता है तथा अन्य का अपोह या अतद्व्यावृत्ति करता हुआ विधि या तद् का वाचक भी होता है, क्योंकि मात्र अन्यापोह से शब्द द्वारा विवक्षा का ज्ञान नहीं हो सकता । अन्यापोह में अनवस्था - दोष आता है और कहीं न कहीं जाकर शब्द का वाच्य अर्थ मानना आवश्यक हो जाता है । विधिपरक अर्थ भी पर्याप्त नहीं है, क्योंकि तद्भिन्न की व्यावृत्ति करके ही कोई शब्द अपने वाच्य - अर्थ का सम्यक् - ज्ञान करा सकता है, अन्यथा नहीं 1281
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261 बौद्ध-प्रमाण-मीमांसा की जैन-दृष्टि से समीक्षा, डॉ. धर्मचंद जैन, पृ. 351
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