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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा के लिए बौद्धों ने अन्यापोह का सिद्धांत प्रस्तुत किया है। अन्यापोह का अर्थ किया है- अतद्व्यावृत्ति । उदाहरण के रूप में, गो शब्द गो से भिन्न, अर्थात् अगो की व्यावृत्ति या निषेध करके अपना अर्थ या अभिप्राय प्रकट करता है। 28 इस प्रकार, अपोह का अर्थ, वस्तु जो है उसे बताना नहीं, अपितु वस्तु जो नहीं है, उसका निषेध कर देना ही है। इस प्रकार,, अपोह निषेधात्मक है। वह अतद् का निषेध करता है। इस प्रकार, गो शब्द का अर्थ है- वह महिष, अश्व, ऊँट आदि नहीं है। बौद्ध - दार्शनिक गो शब्द का अर्थ गो से भिन्न अगो का प्रतिषेध या निषेध ही मानते हैं। 259 अपोह का यह सामान्य अर्थ उसके निषेधात्मक स्वरूप को प्रकट करता है, किन्तु बौद्धदर्शन में कुछ आचार्य ऐसे भी हुए हैं, जो इसे भावात्मक मानते हैं, अतः, उनकी दृष्टि में चाहे अन्यापोह निषेधात्मक प्रतीत होता है, किन्तु उसकी ध्वनि तो भावात्मक ही है। वस्तु क्या है ? यह जानने के लिए सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि वह क्या नहीं है। बौद्ध - दार्शनिक रत्नकीर्ति (10 वीं शताब्दी) लिखते हैं कि अपोह द्वारा शब्द का केवल विधिरूप अर्थ अपेक्षित नहीं है और न केवल अन्यव्यावृत्तिरूप निषेध अर्थ ही अभिप्रेत है, अपितु अन्यव्यावृत्तिपूर्वक विशिष्ट विधिरूप अर्थ ही अभिप्रेत है | 260 दूसरे शब्दों में, अपोह शब्द न तो एकान्तरूप से विधिरूप है और न एकान्तरूप से निषेधात्मक है। अपोह शब्द जाति की कल्पना की अपेक्षा से कल्पनारूप है, किन्तु अन्य का निषेध करने की अपेक्षा से या अन्यव्यावृत्ति की अपेक्षा से न एकान्ततः विधिरूप है, और न एकान्ततः निषेधरूप है, वस्तुतः वह विधि - निषेधरूप है, क्योकि प्रत्येक विधान में निषेध और प्रत्येक निषेध में विधान निहित ही है । उपसंहार 204 - इस प्रकार,, हम देखते हैं कि रत्नाकरावतारिका में रत्नप्रभसूरि ने बौद्धों के अपोहवाद का तार्किक - दृष्टि से प्रस्तुतिकरण कर उसका खंडन किया है और यह भी स्पष्ट है कि बौद्धदर्शन का अपोहवाद मुख्यतः शब्द और उसके वाच्यार्थ के संबंध को लेकर ही प्रस्तुत होता है । बौद्धों के समक्ष मीमांसा का शब्द और अर्थ का तादात्म्य - संबंध और नैयायिकों का 258 स्वार्थमन्यापोहेन भाषेते । 259 प्रमाण - समुच्चय 5.1, उद्धत - तत्त्वसंग्रहपंजिका 529 प्रसज्य प्रतिषेधश्च गौर गौर्न भवत्ययम् । अतिविस्पष्ट एवायमन्यापोहोऽवगम्यते ।। तत्त्वसंग्रह 1009 - 260 नास्माभिरपोहशब्देन विधिरेव केवलोऽभिप्रेतः नाप्यन्याव्यावृत्तिमात्रम् । किन्त्वन्यापोह विशिष्टो विधिः शब्दानामर्थः । Jain Education International रत्नकीर्त्तिनिबन्धावलि, पृ. 54 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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