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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
भ्रम हुआ है, किन्तु वह उस रजत को मिथ्या नहीं मानता है, अपितु रजत को सत्य समझकर ही उस ओर प्रवृत्ति करता है, अथवा उसको प्राप्त करने का प्रयत्न करता है, अतः, सीप में रजत का आरोप होते हुए भी रजत को चाहने वाले की प्रवृत्ति तो वास्तविक रजत के प्रति ही होती है।252
पुनः, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों से कहते हैं कि आपके सिद्धांत में प्रथम दोष तो यह है कि सीप चाहे रजतरूप है या न भी है, किन्तु यह सत्य तथ्य है कि सीप स्वयं भी तो एक पदार्थ है, इसलिए वह अर्थरूप है। जो अर्थरूप होते हैं, उसमें ही इन्द्रियों की अपटुता से अन्य अर्थ का भ्रम हो सकता है, यथा- 'यह ढूंठ है या पुरुष है । यहाँ भी मनोकल्पना से बने हुए शब्दार्थरूप विकल्प तो अर्थरूप हैं ही नहीं, जिससे उनमें अन्य अर्थ का समारोप संभव हो सके ? कदाचित् सीप को रजत समझकर मनुष्य भ्रम के कारण उसमें चाहे प्रवृत्ति कर भी ले, किन्तु अंत में तो सीप का सही बोध होता ही है। उसी प्रकार, विकल्परूप अनर्थ में कदाचित् बाह्यार्थ घट-पटरूप अर्थ का उपचार करके यदि कोई प्रवृत्ति करेगा- ऐसा मान भी लें, तो भी यह समारोप भ्रान्तिरूप ही है, इसलिए उसमें प्रवृत्त बना हुआ अर्थक्रिया का अर्थी पुरुष किस प्रकार सफलता को प्राप्त करेगा ? जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार, शब्द का वाच्यार्थ मानसिक-संकल्पना नहीं है, अपितु भू स्थित घट-पट आदि पदार्थ ही हैं। 255 आप बौद्ध-दाशनिकों ने पूर्व में जो यह कथन किया कि शब्द और अपोह के मध्य मात्र कार्य-कारण-भाव है, शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचकभाव नहीं है, अतः, कार्य-कारण-भाव को ही वाच्य-वाचकभाव के समान समझ लेना चाहिए, अर्थात् कार्य-कारण-भाव का तात्पर्य भी वाच्य-वाचकभाव के समान ही है, आपका यह कथन अनुचित है। यदि कार्य-कारण-भाव ही वाच्य-वाचकभाव हो, तो श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा होने वाले ज्ञान में प्रतिभासित होता हुआ शब्द भी स्वयं के प्रतिभास में कारण बनता ही है, जिससे यह शब्द भी स्वयं को होने वाले ज्ञान का वाचक बनेगा और मन में श्रोत्र द्वारा हुआ ज्ञान वाच्य बनेगा, अर्थात् शब्द श्रोत्रजन्य ज्ञान का कारण और श्रोत्रजन्य ज्ञान शब्द का कार्य होने से शब्द को वाचक और श्रोत्रजन्य ज्ञान को वाच्य बनना चाहिए, परंतु इन दोनों के मध्य वाच्य-वाचकभाव नहीं है, आपका यह कथन उचित नहीं है। पुनः, शब्द जैसे मनोसंकल्पना के कारण
252 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 625 253 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 625
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