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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 201 किन्तु मानसिक-संकल्पना से प्यास शान्त नहीं होती। पुनः, जैसे एक अर्थरूप अग्नि है तथा दूसरी अनर्थरूप क्रोधाग्नि है। अर्थरूप अग्नि यथार्थ होती है, क्योंकि इस अग्नि में जलने की क्रिया होती है, अन्न पकाया जाता है, अग्नि के स्पर्श से हाथ जल जाते हैं आदि। दूसरे शब्दों में, इसकी क्रियाएँ यथार्थ होती हैं, तो इस अर्थरूपी अग्नि पर यदि आप क्रोधाग्नि का उपचार करते हैं, तो आपका यह कथन उपयुक्त नहीं है, क्योंकि क्रोधाग्नि में यथार्थ अग्नि के समान लक्षण नहीं होते हैं। यह ठीक है कि घट कहते ही हमारे मस्तिष्क में सर्वप्रथम उसका एक आकार बनता है, मानसिक-संकल्पना होती है, हमारी बुद्धि में घट नाम का एक प्रतिबिम्ब उत्पन्न होता है, किन्तु क्या उस संकल्पनारूपी घट में जल, घृत, तेल आदि पदार्थ भरे जा सकते हैं ? अर्थात् नहीं भरे जा सकते हैं। जब हम कहते हैं कि यह गाय है, तो हमें यह अर्थ-बोध होता है कि गाय नाम का कोई पशु है, जबकि गाय की मानसिक-संकल्पना कोई वास्तविक वस्तु नहीं हैं। ज्ञात रहे कि वस्तु का जो वास्तविक लक्षण है, वह भूमि पर स्थित (बाह्यार्थ) घट-पट आदि यथार्थ वस्तु में ही होता है और वह कभी भी समारोप या विकल्प का विषय बनता ही नहीं है, अतः, श्रोता की प्रवृत्ति वास्तविक पदार्थ की ओर होती है, अवास्तविक पदार्थ की ओर अर्थात् पदार्थ के मानस-प्रत्यय (idea) की ओर प्रवृत्ति नहीं होती। वास्तविक अग्नि की ओर प्रवृत्ति हो सकती है, किन्तु उपचरित क्रोधाग्नि की ओर कभी प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अतः, मानसिक-संकल्पनारूपी बाह्यार्थ पर संकल्पना के आरोपण को अध्यवसाय कहना, आपका यह सिद्धांत खण्डित हो जाता है।250 'जैनभाषा-दर्शन' में विद्वद्वर्य डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि यदि बौद्ध-दार्शनिक इसके प्रत्युत्तर में यह मानें कि अयथार्थ में अर्थ का अध्यवसाय करने से बाह्य में प्रवृत्ति होती है, तो उनकी यह मान्यता समुचित नहीं है। यदि इसके विपरीत, बाह्यार्थ को ग्रहण करने को ही अर्थाध्यास कहते हैं, तो इससे जैन-मत की ही पुष्टि होती है।251 __ बौद्ध-दार्शनिक जैन-मत की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि आपका यह कथन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि मार्ग में चलते व्यक्ति को सीप में रजत का मिथ्या आरोप होता है। यह ठीक है कि उसको मिथ्या 250 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 624, 625 251 जैन भाषादर्शन, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 54 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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