________________
200
रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा अर्थ उत्पन्न होने लगे, तो सबको समस्त अर्थ (पदार्थ) प्राप्त हो जाएं और सभी व्यक्ति धनाढ्य हो जाएँ। यदि स्वाकार (ज्ञानाकार) को बाह्यार्थ से जोड़ना अध्यवसाय है, तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि ऐसी प्रतीति नहीं होती है। यदि बाह्यार्थ को स्वाकार में आरोपित करना अध्यवसाय है, तो यह भी अनुचित है, क्योंकि बाह्यार्थ एवं स्वाकार का पृथक्-पृथक् ज्ञान हुए बिना एक का दूसरे पर आरोपण नहीं हो सकता। दोनों का ज्ञान न निर्विकल्प-प्रत्यक्ष से हो सकता है और न सविकल्प से, अतः, शब्द-विकल्प बाह्यार्थ का स्वाकार में अथवा स्वाकार का बाह्यार्थ में आरोप नहीं कर सकता।
बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर कहते हैं कि हम समारोप को अध्यवसाय कहते हैं, यथा- सूर्य की किरणों से चमकती रेती में मृग को पानी का आभास होता है और फिर मृग की उसमें प्रवृत्ति होती है, जिसको मृग-मरीचिका कहा जाता है। इस अर्थरूप रेती में अनर्थरूप जल का जो आभास होता है, बस वही अध्यवसाय है। पुनः, यथा सीप में रजत की भ्रांति होती है, उसी प्रकार अनर्थरूप बुद्धि में प्रतिबिम्बित विकल्प में वास्तविक बाह्यार्थ का जो भ्रम होता है, वह अध्यवसाय है, अर्थात् अर्थ में अनर्थ का समारोप या मिथ्या ज्ञान अध्यवसाय है, अतः, शब्द का वाच्यार्थ पदार्थ न होकर मात्र अध्यवसाय है, जो मृग-मरीचिका के समान एक मानसिक-संकल्पना है। इस प्रकार, पदार्थरूपी अर्थ पर मनोकल्पनारूपी अनर्थ आरोपित होने को ही हम अध्यवसाय कहते हैं।249
जैन-दार्शनिक आचार्य रत्नप्रभसूरि रत्नाकरावतारिका में बौद्ध-मत का खण्डन करते हुए कहते हैं कि यदि आप अर्थ पर अनर्थ को समारोप कहते हैं, तो वह समारोप अर्थरूप (भूमि पर स्थित घट-पट आदि) और अनर्थरूप अर्थात् बुद्धिकल्पित घट-पट आदि- इन दोनों को विकल्प का विषय बनने पर ही घटित हो सकता है, अन्यथा घटित नहीं हो सकता। आप (बौद्ध) जो यह तर्क देते हैं कि जैसे मृग-मरीचिका की ओर प्रवृत्ति होती है, वैसे अर्थ की ओर प्रवृत्ति होती है, यद्यपि यह ठीक है कि मृग-मरीचिका की ओर प्रवृत्ति होती है, किन्तु उसकी मानसिक-संकल्पना कभी सार्थक नहीं होती है। पिपासु पानी समझकर प्रवृत्ति कर लेता है,
248 देखें- न्यायकुमुदचन्द्र, पृ. 558-580, उदधृत-बौद्ध-प्रमाण-मीमांसा की जैन-दृष्टि से
समीक्षा 249 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 624
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org