________________
रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
शब्द - ज्ञान द्वारा बाह्य अर्थ का ग्रहण नहीं होता है, अतः, मानस - प्रतिबिम्ब (प्रत्यय) ही शब्द का वाच्य होता है। स्वप्रतिभास से बुद्धि में प्रतिबिम्बित हुआ जो अपोह (विकल्प) है, वह घट, पट आदि पदार्थ (अर्थ) रूप नहीं है, अर्थात् वे विकल्प पदार्थरूप नहीं हैं, वे मानसिक- संकल्पना हैं, idea हैं, आभास हैं, जिसे हम बौद्ध - दार्शनिक अनर्थरूप कहते हैं। ऐसे अनर्थरूप मानस - प्रत्यय से ही हमारी बुद्धि में प्रतिभासित (प्रतिबिम्बित ) अपोह (विकल्प) में भूमिगत वास्तविक घट पट आदि पदार्थ का अध्यवसाय ( निश्चय ) होता है और इस अध्यवसाय में ही श्रोता की भी प्रवृत्ति होती है। 245
ज्ञान की अर्थाकारता का खंडन करते हुए जैन- दार्शनिक रत्नप्रभसूर बौद्धों से प्रतिप्रश्न करते हैं कि यदि अर्थाकार - प्रतिबिम्ब को स्वीकार कर भी लिया जाए, तो वह प्रतिबिम्ब किसका है ? स्वलक्षण अर्थ का है या सामान्य का ? स्वलक्षण का तो वह प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता, क्योंकि स्वलक्षण अन्य समस्त अर्थों से व्यावृत्ताकारवान् होता है। यदि ज्ञान में सामान्य का प्रतिबिम्ब बनता है, तो यह भी अयुक्त है, क्योंकि बौद्ध-मत में सामान्य असत् है, उसका प्रतिबिम्ब नहीं बन सकता । 246
अतः, जैन- दार्शनिक प्रश्न करते हैं कि यदि शब्द विकल्परूप में ही अपने मानस - प्रतिबिम्ब (प्रत्यय) का निश्चयात्मक माना जाता है, तो इससे बाह्यार्थ में, अर्थात् भूमि पर स्थित घट-पट आदि पदार्थ में प्रवृत्ति कैसे होगी? आप बौद्ध जो यह कथन करते हैं कि शब्द - विकल्प द्वारा अनर्थ में अर्थ का अध्यवसाय करने से बाह्यार्थ में प्रवृत्ति होती हैं, तो यह अर्थाध्यास क्या है ? अर्थात् आप अर्थाध्यास किसको कहते हैं ? 247
199
'बौद्ध-प्रमाण-मीमांसा की जैन- दृष्टि से समीक्षा' नामक पुस्तक में डॉ. धर्मचन्द जैन इस सन्दर्भ में लिखते हैं कि 'बाह्यार्थ को ग्रहण करना अध्यवसाय है, तो यह 'अन्य - मत' को सिद्ध करता है, क्योंकि बौद्धों को तो शब्द - ज्ञान द्वारा बाह्य अर्थ का ग्रहण अभीष्ट नहीं है। यदि अर्थाध्यावसाय का कारण अर्थ है, तो यह भी अनुपपन्न ( असिद्ध ) है, क्योंकि अर्थ तो अपनी सामग्री से उत्पन्न होते हैं, ज्ञान से नहीं । यदि ज्ञान - मात्र से ही
245 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 624
246
'जैन भाषा दर्शन, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 54
247 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 624
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org