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________________ 198 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा __'बौद्ध-प्रमाण-मीमांसा की जैन-दृष्टि से समीक्षा' नामक पुस्तक में डॉ. धर्मचन्द्र जैन लिखते हैं कि 'अकलंक ने जैन-दर्शनानुसार प्रतिपादित किया है कि किसी एक वस्तु में संकेत ग्रहण करके तत्स सदृश अन्य घटों में भी 'घट' शब्द का व्यवहार किया जाता है। 242 समस्त घटों में पृथक्-पृथक रूप से 'घट' शब्द का संकेत ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं होती है। प्रत्येक वस्तु सदृशासदशात्मक होती है, वह तज्जातीय द्रव्यों के सदृश तथा विजातीय-द्रव्यों से विसदृश होती है, यथा- 'घट' वस्तु तत्सदृश घटों के सदृश तथा पट आदि से विसदृश होती है। उसकी अन्य वस्तुओं से सदृशता सामान्य है तथा विसदृशता विशेष है। सामान्य विशेष से पृथक् होकर वस्तु में नहीं रहता है। इसी प्रकार, विशेष भी सामान्य से पृथक् होकर वस्तु में नहीं रहता है। दोनों की प्रतीति एक ही वस्तु में होती है। हमें जो भी ज्ञान होता है, वह सामान्य-विशेषात्मक वस्तु का ही ज्ञान होता है, इसलिए सामान्य-विशेषात्मक वस्तु में ही संकेत ग्रहण होता जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि शब्द का अर्थ बुद्धि में प्रतिबिम्बित प्रत्यय (Idea) है या यथार्थ बाह्य-वस्तु है ? यदि आप बुद्धि में प्रतिबिम्बित प्रत्यय (Idea) को ही शब्द का वाच्यार्थ मानते हैं, तो यह बताइए कि मन का जो विकल्प है, अर्थात् वस्तु की जो मानसिक-संकल्पना है, क्या वही वस्तु है ? क्या बाह्यगत (भूमिगत) घट-पट आदि पदार्थ (वस्तु) नहीं हैं ? यदि आप ऐसा मानते हैं, तो फिर यह बताइए कि शब्द को सुनकर श्रोता की प्रवृत्ति या जन-साधारण की प्रवृत्ति किसमें होगी ? यदि शब्द केवल मानसिक-संकल्पना का वाचक है और बाह्यार्थ (बाह्य-वस्तुओं) से उसका कोई संबंध ही नहीं है, तो फिर श्रोता को बाह्यार्थ में प्रवृत्ति कैसे होगी ? अर्थात् बाह्यार्थ की प्राप्ति या बाह्यार्थ का बोध (ज्ञान) कैसे होगा ?204 ____बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर अपने मत की पुष्टि में उत्तर देते हैं कि शब्द के द्वारा बुद्धि में अर्थ का मानस-प्रतिबिम्ब (idea) उत्पन्न होता है। 242 देखें - तत्रैकमाभिसन्धाय, समानपरिणामिषु। ___ समयः तत्प्रकारेषु, प्रवर्तेतेति साध्यते।। - न्यायविनिश्चय, 198, 199 243 देखें - तत् समाना समानेषु, तत्प्रवृत्तिनिवृत्तये। संक्षेपेण क्वचित्, कश्चिच्छब्दः संकेत मश्नुते।। - न्यायविनिश्चय, 214 244 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि. पृ. 624 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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