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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
आप तो सामान्य को भावरूप स्वीकार करते ही नहीं हैं, अतः, आपका प्रथम पक्ष खंडित हो जाता है 1239
जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों से कहते हैं कि यदि आप यह दूसरा पक्ष ग्रहण करते हैं कि अन्य की व्यावृत्ति का तात्पर्य विजातीय से व्यावृत्ति है, तो गो की बैल आदि की अपेक्षा से सजातीयता सिद्ध होती होगी और अश्व, हाथी आदि अन्य पदार्थों से विजातीयता सिद्ध होगी, क्योंकि आप जब तक सजातीय को स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक विजातीय का निषेध कैसे करेंगे? आप सामान्य को स्वीकार तो करते नहीं हैं, क्योंकि सामान्य तो जात्यान्वित और काल्पनिक है, मात्र विशेष को स्वीकार करते हैं, तो विशेष तो अनेक हैं, तो क्या प्रत्येक विशेष के अलग-अलग नाम लाएँगे ? विशेष में आप किसकी किससे व्यावृत्ति करेंगे ? इस प्रकार, दोनों में परस्पराश्रय नाम का दोष उत्पन्न हो जाएगा । विजातीय विजातीय तभी कहलाएगा, जब कोई सजातीय हो और दोनों में इस पृथक्कीकरण का आधार यह है कि यह सजातीय है तथा यह विजातीय है । तात्पर्य यह है कि सजातीयता की सिद्धि विजातीय से व्यावृत्तिरूप है, इसलिए अन्य पदार्थों से विजातीयता सिद्ध होने पर सजातीयता की सिद्धि भी घटित हो सकती है | 240 फलितार्थ यह है कि सजातीयता अन्य की व्यावृत्तिरूप होने से अन्य में विजातीयता तब तक सिद्ध नहीं होगी, जब तक सजातीयता की सिद्धि नहीं होगी। इसी प्रकार, विजातीयता की सिद्धि सजातीयता की सिद्धि के बिना घटित नहीं हो सकती और सजातीयता की सिद्धि विजातीयता की सिद्धि के बिना असंभव होने से दोनों में परस्पराश्रय नामक दोष उत्पन्न होगा | 241
जैन- दार्शनिक पुनः कहते हैं कि प्रत्येक शब्द का अपना एक भावात्मक (विधानात्मक) अर्थ होता है। शब्द केवल विजातीय का निषेध ही नहीं हो सकता, किन्तु वह सजातीय का अर्थात् वस्तु का विधान भी करता है । यदि शब्द को केवल निषेधात्मक मानेंगे, तो फिर वह विजातीय के समान ही सजातीय का निषेधक हो जाएगा और ऐसी स्थिति में वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादक होने से उसका औचित्य ही समाप्त हो जाएगा।
239 रत्नाकरावतारिका, भाग II 240 रत्नाकरावतारिका, भाग II 241 रत्नाकरावतारिका, भाग II,
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रत्नप्रभसूरि, पृ. 623 रत्नप्रभसूरि, पृ. 623 रत्नप्रभसूरि, पृ. 623
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