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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
साथ समानता (सदृशता) संभव ही नहीं होने के कारण आपका प्रथम पक्ष उचित नहीं है।237
यदि आप दूसरा पक्ष कहते हैं, तो यह भी उचित नहीं है। विवक्षित एक बैल को दूसरे बैल से व्यावृत्तिरूप (अभाव) है, ऐसी समानता कहते हो, तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक में अन्य का निषेध, या अन्य व्यावृत्ति अभावरूप होती है और अभाव शून्यात्मक होता है। वन्ध्यापुत्र के समान उसमें स्वलक्षण संभव नहीं हैं, जैसे - वन्ध्यापुत्र का अभाव होने से, अर्थात् 'सत्' नहीं होने से उसमें स्वलक्षण का प्रवेश नहीं हो सकता, अर्थात् उसका कोई स्वलक्षण नहीं हो सकता, क्योंकि अन्य की व्यावृत्ति अभाव (असत) रूप होती है, उसका कोई स्वलक्षण नहीं हो सकता है, इसलिए आपका यह दूसरा तर्क भी उचित नहीं है।
पुनः, आचार्य रत्नप्रभ बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि आप जो विवक्षित- समानत्व का अर्थ 'अन्य से व्यावृत्ति' मानते हैं, तो इस अन्य की व्यावृत्ति को आप किसकी अपेक्षा से व्यावृत्ति मानते हैं ? 1. क्या आप उसे. सामान्य अर्थात् सजातीय की अपेक्षा से व्यावृत्ति मानेंगे ? या 2. विजातीय की अपेक्षा से व्यावृत्ति मानेंगे ? यदि आप प्रथम पक्ष मानते हैं अर्थात सजातीय की अपेक्षा से व्यावृत्ति मानते हैं, तो कोई भी पदार्थ किसी भी पदार्थ की अपेक्षा से व्यावृत्तिरूप अर्थात निषेधरूप नहीं होगा, क्योंकि पूर्ण असमानता भी संभव नहीं है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि घट पदार्थ की सिद्धि के लिए क्या आप घट जाति की ही व्यावृत्ति करेंगे, या पट जाति की व्यावृत्ति करेंगे? अर्थात यह घट घट जाति के घट के समान नहीं है। इसका तात्पर्य यह निकला कि घट घट के समान नहीं है, अपितु पट के समान है। इस प्रकार, आप घट और पट में समानता स्वीकार करेंगे। इसी प्रकार, पट को सिद्ध करने के लिए आप पट जाति का निषेध करते हुए यह सिद्ध करेंगे कि यह पट इस घट के समान है। इस प्रकार, पट और घट में समानता स्वीकार करेंगे। तात्पर्य यह हुआ कि घट अपने सजातीय घट से भिन्न है और पट भी अपने सजातीय पट से भिन्न है। घट और पट अपने सजातीय इतर पदार्थों से व्यावृत्त होने के कारण यदि आप उनकी विजातीय पदार्थों के साथ समानता सिद्ध करते हैं, तो आपका कथन खंडित हो जाता है। समानता अर्थात् सामान्य तो भावरूप है, जबकि
237 रत्नाकरायतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 622 238 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 822
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