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________________ 190 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा संभव नहीं होने से हम सभी शब्दों को अप्रमाण ही मानते हैं, तो अन्ततः आपने ऐसा कथन क्यों किया ? हमारे द्वारा दिए गए चार विकल्पों में से किस विकल्प के आधार पर आप ऐसा कहते हैं, इसका स्पष्टीकरण करें। दूसरे, आप चार्वाक आदि अन्य दार्शनिकों की वाणी को अप्रमाण तथा माता, पिता, पुत्र, भाई, गुरु और भगवान् बुद्ध की वाणी को उनकी विशेषता के कारण प्रमाणरूप मानते हैं। इस प्रकार, जब आप स्वयं ही चार्वाक आदि अन्य दार्शनिकों की वाणी को अप्रमाणरूप कहते हैं तथा माता, पिता, भाई, गुरु और विशेष रूप से भगवान बुद्ध की वाणी को प्रमाणरूप कहते हो, तो इस आधार से तो हम यही कहते हैं कि आप उपर्युक्त दोनों वक्ताओं की वाणी की अप्रमाणरूपता और प्रमाणरूपता को, विवेक की सम्भावना को स्वीकार करते हैं। दसरे शब्दों में, आप स्वयं यह निर्णय करने में सक्षम हैं कि आप्त कौन है ? और अनाप्त कौन है ? दोनों के वचन में क्या भेद है ? ऐसा विवके-ज्ञान आप में है, तभी तो आपने चार्वाक आदि के वचनों को अप्रमाणरूप में और भगवान् बुद्ध के वचनों को प्रमाणरूप में स्वीकार किया है। यदि आप दोनों के वचनों में भेद स्वीकार नहीं करते हैं, तो भगवान् बुद्ध तथा माता-पिता आदि उपकारियों के द्वारा कथित वचनों के अनुसार आप जो प्रवृत्ति करते हैं वह आपकी प्रवृत्ति निरर्थक मानी जाएगी। फिर तो, आपको चार्वाक आदि के वचनों के आधार पर भी प्रवृत्ति करनी चाहिए, अथवा चार्वाकादि की वाणी वचनों के समान अपने उपकारियों के वचनों (शब्दों) में भी प्रवृत्ति नहीं करना चाहिए, किन्तु आप ऐसा नहीं करते हैं ? इससे यही सिद्ध होता है कि आप आप्त-अनाप्त का भेद करते हैं और आप्तपुरुष के वचनों को प्रमाणरूप भी मानते हैं, अतः, आप (बौद्धों) द्वारा दिए गए उपर्युक्त सारे तर्क व्यर्थ माने जाएंगे, इसलिए आपको शब्द को प्रमाणरूप स्वीकार कर लेना चाहिए। बौद्ध दार्शनिक शब्द की प्रामाणिकता की समीक्षा करते हुए जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि से कहते हैं कि हम तो आप्तपुरुष को मानते हैं, उनकी वाणी को भी मानते हैं तथा उनकी वाणी की प्रमाणरूपता को भी मानते हैं, किन्तु आप्त-पुरुष के शब्द से जो अर्थ (पार्थ) की प्रतीति होती है, उस अर्थ की प्रतीति को अनुमान से मानते हैं, शब्द-प्रमाण (आगम-प्रमाण) से नहीं मानते, जैसे- कोई आप्तपुरुष 'यह वृक्ष है- ऐसा 225 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 618 226 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 618, 619 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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