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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा शब्द - प्रयोग करता है, तो उस शब्द-प्रयोग से वृक्षरूपी अर्थ की जो प्रतीति होती है, वह अनुमान से होती है, न कि शब्द - प्रमाण से । इस संबंध में हम अनुमान को ही प्रमाणरूप मानते हैं। वह अनुमान इस प्रकार से है- यह पुरुष (पक्ष) वृक्ष शब्द के अर्थ को जानने वाला है (साध्य), क्योंकि वृक्ष शब्द का प्रयोग करता है (हेतु) । जिस प्रकार पूर्वकाल में पादप अर्थात् वृक्ष के 1 लिए वृक्ष शब्द का प्रयोग किया था, उसी प्रकार अब भी किया जाता है ( दृष्टांत) | इस प्रकार, प्रथम विवक्षा को अनुमान द्वारा हमारी यह विवक्षा सत्य ही है, ऐसा समझाने के पश्चात् अब दूसरा अनुमान करते हैं - यह विवक्षा अर्थात् कथन ( पक्ष ) सत्य ही है (साध्य), क्योंकि यह आप्तपुरुष का कथन है ( हेतु), मेरी विवक्षा अर्थात् कथन के समान (उदाहरण) । इस प्रकार, तात्पर्य यह है कि अनुमान प्रमाण द्वारा आप्तपुरुष के वचन से वस्तुतत्त्व का ज्ञान अर्थात् अर्थ का ज्ञान (बोध) किया जा सकता है। इस प्रकार, अनुमान से ही यह बात सिद्ध हो जाती है, तो फिर शब्द को प्रमाण क्यों माना जाए ? अर्थात् शब्द को प्रमाणरूप मानने की आवश्यकता ही नहीं है - ऐसा बौद्ध - दार्शनिक प्रतिपादन करते हैं। 227 इस पर, जैन- दार्शनिक रत्नप्रभसूरि बौद्धों से कहते हैं कि यदि आप (बौद्ध) शब्द से होने वाले अर्थ-बोध को भी अनुमानजन्य मानते हैं, तो आपकी यह मान्यता उचित नहीं है। इसका समाधान हमने प्रस्तुत रत्नाकरावतारिका में चौथे परिच्छेद के दूसरे सूत्र की टीका में वैशेषिक दर्शन की इसी प्रकार की मान्यता का खण्डन करते समय किया है, जो इस प्रकार है- "अत्रैवं वदन्ति काणादा: शब्दोऽनुमानम्. व्याप्तिग्रहण बलेनार्थप्रतिपादकत्वाद् धूमवद् इति । तत्र हेतोरामुखे कुटाकुटकार्षापण निरूपण प्रवण प्रत्यक्षेण व्यभिचारः, तथा भूतस्यापि तत्प्रत्यक्षस्यानुमान निरूपताऽपायात् ।"" .228 227 रत्नाकरावतारिका, भाग II 228 रत्नाकरावतारिका, भाग II इसका फलितार्थ यह है कि शब्द से होने वाला अर्थ-बोध अनुमानजन्य अर्थबोध के समान नहीं है, परन्तु स्वतंत्र आगम (शब्द) प्रमाणजन्य ही है । पुनः, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों से कहते हैं कि आप विवक्षित कथन के सम्बन्ध में जो अनुमान करते हैं, वह अनुमान आप शाखा - प्रशाखा, फल-फूल, पत्ते आदि पदार्थों में भी वृक्ष शब्द का संकेत कराने हेतु करते हो, या संकेत किए बिना ही अनुमान करते हो ? 'संकेत Jain Education International रत्नप्रभसूरि, पृ. 619 रत्नप्रभसूरि, पृ. 505 191 - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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