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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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शब्द निरपेक्ष रूप से न तो सामान्य का वाचक हो सकता है, न निरपेक्ष रूप से विशेष का वाचक हो सकता है।
तीसरे, बौद्ध यह कहते हैं कि शब्द और अर्थ के मध्य तादात्य-संबंध भी नहीं है, क्योंकि सामान्य और विशेष- ये दोनों परस्पर विरुद्ध-धर्म से युक्त होने के कारण शीतलता और ऊष्णता के समान दोनों में तादात्य-संबंध भी नहीं है। सामान्य तो ध्रुव है और विशेष क्षणिक है। सामान्य तो जातिवाचक है और विशेष मात्र व्यक्तिवाचक है। अत:, शब्द सामान्यात्मक, या विशेषात्मक, या उभयात्मक- इन तीनों में से किसी भी पदार्थ को वाच्य नहीं करता है, इसलिए शब्द और घट-पट आदि पदार्थों के मध्य में वाच्य-वाचकभाव नहीं है,210 अपितु शब्द और अपोह के मध्य मात्र कार्य-कारण-भाव है। घट शब्द के उच्चारित होते ही श्रोता के मन में घट का आकार प्रतिबिम्बित करने वाले विकल्प कार्य हैं और शब्द उस विकल्प का कारण है। शब्द के निमित्त से विकल्पात्मक कार्य के उत्पन्न होने से शब्द और विकल्प में कार्य-कारण-भाव है।11 बौद्धों का अपोहवाद (पूर्वपक्ष)
बौद्धदर्शन के अनुसार 'अपोह' क्या है ? इसको रत्नाकरावतारिका में समझाया गया है। वक्ता द्वारा उच्चरित शब्द के परिणामस्वरूप श्रोता के मन में उत्पन्न होने वाले विकल्प को ही 'अपोह कहते हैं। वह अपोह चार विशेषणों से युक्त होता है- 1. सर्वथा भिन्न-भिन्न स्वरूप वाले परमाणुओं से निर्मित जलधारण करने की क्रिया (कार्य) को करने वाला, अर्थात् अर्थक्रियाकारी 'घट' शब्द एक विचार (विकल्प) रूप आकार-विशेष का सूचक है, यही अपोह है। 2. दूसरे, अपोह मात्र विकल्प-विशेष के कारण उत्पन्न होने वाला आकार-विशेष होता है, किन्तु यह 'अपोह न तो पदार्थ से उत्पन्न होता है और न पदार्थ के साथ जुड़ता है। 3. तीसरे, बाहर भूमि के ऊपर रहे हुए घट आदि विभिन्न प्रकार के आकारों का विकल्प (अपोह) तो आभ्यंतर होता है, अर्थात् विकल्प मानसिक-संकल्पना है, या बुद्धि-कल्पित मात्र विचार है। मनोगत इस विकल्प का बाह्य-पदार्थ के आकार के साथ मिलान करना अपोह है। 4. चौथे, हमारी बुद्धि में जो
209 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 612 210 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 612 211 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 612. 613
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