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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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जबकि जैन-दार्शनिकों का मानना है कि सामान्य के वाचक शब्दों में अपने वाच्यार्थ के बोध की स्वाभाविक-शक्ति होती है तथा विशेष के वाचक शब्दों में संकेतक-शक्ति होती है। शब्द मात्र व्यक्तिवाचक नहीं हैं, अपितु जातिवाचक भी हैं। जातिवाचक शब्द सामान्य होता है, जो उस जाति के सभी घटकों पर लागू होता है, जैसे- मनुष्य शब्द विशेष का संकेतक कैसे होगा ? क्योंकि मनुष्य शब्द किसी व्यक्ति विशेष का वाचक तो नहीं है। यहाँ बौद्ध यह कहते हैं कि शब्द से वस्तु या अर्थ का बोध होता है, अतः, वह सामान्य का वाचक नहीं हो सकता है। .
पुनः, बौद्ध-दार्शनिक जैनों से कहते हैं कि यदि आप शब्द को विशेष का वाचक मानते हैं, तो यह कथन भी उचित नहीं है। स्वलक्षण से युक्त विशेष तो विकल्प-ज्ञान का विषय बनता ही नहीं है, इसलिए विशेष भी संकेत का आधार नहीं बन सकता, क्योंकि प्रत्येक शब्द प्रत्येक पदार्थ के सम्बन्ध में किसी विकल्प (सामान्य) को ही उत्पन्न करता है। कोई भी शब्द विशेष पदार्थ का वाचक नहीं होता है। उदाहरणस्वरूप, हमने कहा कि 'घटमानय', तो इससे श्रोता के मन में घट के आकार का विकल्प-ज्ञान ही उत्पन्न होता है। घट शब्द के वाच्यार्थ का बोध करने के लिए श्रोता यह भी नहीं, यह भी नहीं- इस प्रकार, अन्य पदार्थों का निषेध करता हुआ अन्त में 'यह घट है'- इस प्रकार, के अनुमान से विशेष धर्मात्मक घटरूपी पदार्थ का बोध कराता है। इस प्रकार, वाचक शब्द से तो मात्र विकल्प ही उत्पन्न होता है, किन्तु किसी भी विशेष वाच्यार्थ का बोध नहीं होता है। इस संबंध में रत्नाकरावतारिका के चतुर्थ परिच्छेद के ग्यारहवें सूत्र की टीका में कहा गया है -
विकल्पयोनयः शब्दाः, विकल्पाः शब्दयोनयः।
कार्य-कारणता तेषां, नार्थ शब्दाः स्पृशन्त्यपि।। अर्थात्, वक्ता की अपेक्षा से विकल्प से शब्द उत्पन्न होते हैं और श्रोता की अपेक्षा से शब्द से विकल्प उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार, विकल्प और शब्द में परस्पर कार्य-कारण-भाव रहा हुआ है। शब्द पदार्थ का स्पर्श भी नहीं करते हैं। तात्पर्य यह है कि जब शब्द और पदार्थ में परस्पर कोई संबंध ही नहीं है, तो शब्द में पदार्थ को बताने की सांकेतिक-शक्ति है
205 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 611
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