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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
संकेतक स्वाभाविक-शक्ति नहीं है। जैसे- किसी का नाम ज्योत्स्ना है, तो यह नाम किसी के द्वारा दिया गया होने से यह सांकेतिक-शब्द है, किन्तु 'चन्द्र-ज्योत्स्ना' यह स्वाभाविक-शब्द है, अर्थात् इस शब्द में अर्थ को बताने की स्वाभाविक-शक्ति है, किन्तु बौद्ध कहते हैं कि शब्द सर्वत्र संकेतक ही होता है।
जैन - जैन-दार्शनिक बौद्धों से कहते हैं कि शब्द में स्वाभाविक-शक्ति भी स्वीकार करना होगी और सांकेतिक-शक्ति भी स्वीकार करना होगी। यदि आप शब्द में स्वाभाविक शक्ति नहीं मानेंगे, तो कोई भी शब्द का अर्थ कुछ भी हो सकता है। यदि आप (बौद्ध) सिर्फ सांकेतिक-शक्ति ही मानेंगे तो फिर अर्थ-बोध से पुरुष स्वतंत्र होगा, वह किसी भी शब्द को किसी भी अर्थ का वाचक मान सकता है। यदि आप दोनों को ही नहीं मानेंगे, तो शब्द में अर्थ की वाच्यता-सामर्थ्य का ही अभाव हो जाएगा। अभाव में तो अर्थबोध उत्पन्न करने की शक्ति ही नहीं है, फिर शब्द वाचक कैसे बनेगा?
रत्नप्रभसूरि के इस कथन पर बौद्ध-दार्शनिक आचार्य रत्नप्रभसूरि से कहते हैं- आप शब्दों में वाच्यता-सामर्थ्य स्वाभाविक रूप से भी मानते हैं तथा सांकेतिक रूप से भी ? अर्थात यह मानते हैं कि स्वाभाविक शक्ति
और संकेत द्वारा शब्द पदार्थ का बोधक होता है, तो हमारा प्रश्न यह है कि शब्दों में जो वाच्यता-सामर्थ्य है, वह 1. सामान्य रूप से है ? या 2. विशेष रूप से है ? या 3. सामान्य-विशेष- ऐसे उभयात्मक रूप से है ?203 - बौद्ध-दार्शनिक कहते हैं कि शब्दों में वाच्यता-सामर्थ्य सामान्य रूप से तो नहीं मान सकते, क्योंकि शास्त्रों में उल्लेख है कि 'सामान्यं एकं निरवयवं निष्क्रियं', अर्थात् सामान्य एक, निरवयव और निष्क्रिय होता है। सामान्य अर्थ क्रियाकारी रूप वाला न होने से आकाश-पुष्प के समान तथा वन्ध्या-पुत्र के समान उसी प्रकार असत् है, जिस प्रकार पटत्व आदि जाति (सामान्य) वाचक शब्द निष्क्रिय होने के कारण उनमें अर्थक्रिया करने की सामर्थ्य नहीं होती है, अर्थात् असत् (मात्र कल्पनाजन्य) होने के कारण उनमें अर्थक्रियाकारी शक्ति नहीं होती है। यद्यपि शब्द का वाच्यार्थ सामान्य हो सकता है, किन्तु सामान्य की कोई वास्तविक सत्ता ही नहीं है, 200
203 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 610 204 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 610
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