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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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का कार्य अपने वाच्यार्थ से भिन्न अन्य अर्थों का निषेध करना हैं।198 यही बौद्धों का अपोहवाद है। रत्नाकरावतारिका में जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि ने बौद्धों के इस अपोहवाद का खण्डन किया है।
जो वस्तु प्रसिद्ध हो, वादी और प्रतिवादी- दोनों को मान्य हो, ऐसी जो वस्तु का कथन कराता हो, वह अनुवाद्य कहलाता है। उच्चारित स्वर-व्यंजन से युक्त जो शब्द है, वह प्रसिद्ध है। यह बौद्ध और जैन-दोनों को मान्य है, इसलिए 'शब्द' रूप जो कथन है, वह अनुवाद्य है।
जो वस्तु प्रसिद्ध नहीं है और प्रतिवादी को मान्य भी नहीं है, परंतु वादी द्वारा प्रतिवादी को समझाने के लिए जिसका कथन किया जाता है, वह विधेय कहलाती है।. 'शब्द है' यह बात जैन और बौद्ध-दोनों को मान्य है। शब्द स्वाभाविक-सामर्थ्य और सांकेतिक-शक्ति के द्वारा पदार्थ का बोधक होता है, यह बात जैनों को मान्य है, परन्तु बौद्धों को यह मान्य नहीं है, इसलिए जैन बौद्धों को शब्द की स्वाभाविक-सामर्थ्य और संकेतक-शक्ति के विषय को समझाते हैं, यह विधेय कहलाता है, अर्थात् सामर्थ्य और संकेतक-शक्ति के द्वारा शब्द अर्थ का वाचक है- ऐसा जो समझाया जाता है, वह विधेय कहलाता है।1
शब्द को लेकर जैन-दार्शनिक और बौद्ध-दार्शनिकों में मतभेद हैं। जैन-दार्शनिक आचार्य रत्नप्रभसूरि का रत्नाकरावतारिका में कहना है कि शब्दों में वाच्यता-सामर्थ्य स्वयं से है, अर्थात् स्वाभाविक है,202 क्योंकि शब्द में स्वाभाविक रूप से अपना वाच्यार्थ रहा हुआ है, जैसे - "पत्ता' शब्द। पत्ते को 'पत्ता' नाम तो किसी का दिया हुआ नहीं है, अपितु उसके गिरते समय पत् की जो आवाज होती है, उसी के आधार पर उसे पत्ता कहा जाता है, यह पत्ते की स्वाभाविक-शक्ति है। इसको सांकेतिक नहीं कहा जा सकता।
बौद्ध - बौद्ध-दार्शनिक कहते हैं कि शब्द का अर्थ से कोई संबंध ही नहीं है। वह किसी का संकेतक होता है, अर्थात संकेत द्वारा शब्द अर्थ को बताता है। शब्द में अर्थ को बताने की सांकेतिक-शक्ति है, अर्थ की
199 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 52 200 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 610 201 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूारे. पृ. 610 202 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 610
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