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________________ 176 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा अध्याय - 6 बौद्धों के अपोहवाद की समीक्षा अपोहवाद : बौद्धों का पूर्वपक्ष - रत्नप्रभ ने रत्नाकरावतारिका के चतर्थ-परिच्छेद में शब्दार्थ-संबंध को लेकर नैयायिकों, बौद्धों और जैनों में जो मतभेद हैं, उसे स्पष्ट किया है। नैयायिकों के शब्दार्थ-संबंध की समीक्षा करने के पश्चात् आचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों के अपोहवाद की समीक्षा करते हैं। बौद्धदर्शन के अनुसार शब्दरूप में अभिव्यक्त विधेयभाव अनुवाद्य कहलाता है। आचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि बौद्ध और जैन- इन दोनों के लिए स्वर-व्यंजन से युक्त भावों की अभिव्यक्ति करने वाला जो प्रचलित शब्द होता है, वह अनुवाद्य कहलाता है। अपनी स्वाभाविक-शक्ति और संकेत द्वारा वह शब्द अर्थ (पदार्थ) का बोधक होता है और वही अर्थ विधेय कहलाता है। बौद्धदर्शन के अनुसार, शब्द का कार्य सिर्फ इतना ही है कि वह अन्य का निषेध कर देता है। शब्द का अर्थ से कोई संबंध ही नहीं है, वह मात्र किसी अर्थ का संकेतक होता है। बौद्धों का यह कहना है कि शब्द, अर्थ का वाचक नहीं है, क्योंकि शब्द अलग हैं और अर्थ अलग, जबकि रत्नाकरावतारिका में रत्नप्रभ का कहना है कि शब्द और अर्थ में किसी प्रकार का संबंध नहीं मानेंगे, तो फिर शब्द से अर्थ का बोध ही नहीं होगा। इसके उत्तर में बौद्ध ने अपोहवाद का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उनका कहना है कि शब्द वस्तु को वाच्य नहीं करता है, अपितु वह वस्तु में अन्य धर्म का निषेध करता है, जैसे घट शब्द घट नामक वस्तु का वाचक नहीं है, लेकिन किसी वस्तु में घट से भिन्न अन्य का निषेध करता है। डॉ. सागरमल जैन, जैन-भाषा-दर्शन में लिखते हैं- 'अपोह का तात्पर्य अतद्-व्यावृत्ति या अन्य-व्यावृत्ति है। शब्द के वाच्यार्थ को अन्य शब्दों के वाच्यार्थ से पृथक करना, अर्थात् अन्यापोह ही अपोह है। अपने वाच्यार्थ का अन्य वाच्यार्थों से पृथक्कीकरण ही शब्द की अपोहात्मकता है। उदाहरण के लिए, 'गाय' शब्द यह बताता है कि उसका वाच्यार्थ महिष, अश्व, पुरुष आदि नहीं है। इस प्रकार, शब्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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